कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। हम इस कहावत को जानते हैं पर इसका आशय कभी अपने जीवन में उतार नहीं पाते। मनुष्य मन चंचल हैं-यह भी जानते हैं पर कभी इस ज्ञान को धारण नहीं करते। परिणाम यह होता है कि हम मन बहलाने या सुख पाने के लिये भटकते हैं। बेचैनी स्थाई साथी बन जाती है। न घर में चैन न बाहर!
हमारे एक मित्र एक धार्मिक स्थान पर गये। विशेष अवसर होने के कारण उस शहर में खान पान, रहन सहन तथा परिवहन के साधनों के भाव चार से छह गुना महंगे थे।
उन्होंने इस लेखक से कहा-‘यार, धर्म की आड़ में सबसे ज्यादा अंधेर इन पवित्र स्थानों पर ही ज्यादा दिखाई देता है। वहां हर कोई वस्तु तथा सेवा के बदले दूने चौगुने दाम मांग रहा था। रहने की व्यवस्था भी महंगी पर बेकार थी।’
उन्होंने ढेर सारी शिकायतें कीं। लेखक ने जवाब दिया कि-‘तुम पर्यटन का आनंद उठाने के लिये गये थे। साथ में दर्द लाने के लिये श्रम तथा धन का व्यय थोड़े ही किया था।’
इस तरह की शिकायतें अक्सर लोग करते हैं। यहां हम स्पष्ट कर दें कि अध्यात्मिक अभ्यास कर हमने यह अनुभव किया है कि जो लोग अपने शहरों में घूमने का आनंद नहीं उठा पाते। अपने घर को बहुत सजा लेते हैं पर सुख की अनूभूति करना नहीं आता।
हमने देखा होगा कि अधिकतर धार्मिक स्थान बहुत दूर पहाडियों आदि पर स्थित होते हैं। सामान्य मनुष्य अपने शहर और घर में अधिकतर नहीं चलता। कम चलने से देह का अभ्यास कम होता है जिससे मन तथा बुद्धि शिथिल रहती है। इस कारण अजीब प्रकार का उदासीनता का भाव मस्तिष्क में घर लेता है। अपने घर तथा शहर से दूर होने पर देह का अभ्यास बढ़ने से मन वह बुद्धि में ताजगी का आभास होता है। यही कारण है कि आदमी दूर के ढोल सुहावने देखने लगता है। हमने तो यह भी देखा है कि अपने शहर में ही विशाल तथा आकर्षक मंदिर होने के बावजूद वहां नहीं जाते वरन् दूरदराज स्थिति धार्मिक स्थलों की तरफ टकटकी लगाये देखते हैं कि कब वहां जाना हो? ऐसे लोग भी देखे हैं जो अपने शहर में नित्य मंदिर जाकर प्रणाम या ध्यान से अपने मन की शुद्धि कर लेते हैं, जिससे उनके हृदय में कभी बाहर धार्मिक स्थलों पर जाने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती।
प्रसिद्ध धर्म स्थानों वाले शहरों में रहने वाले स्थाई वासी व्यवसायिक उद्देश्य से रहते हैं। विशेष अवसर उनके लिये कमाने वाले होते हैं। उनके लिये वहां के मंदिर आस्था से अधिक आय के केंद्रबिंदु होते हैं। उनके लिये भी अपने ही शहर के मंदिर ‘घर का ब्राह्मण बैल बराबर वाली स्थिति होती है’। उनका प्रयास यह रहता है कि विशेष अवसरों पर अधिक आय अर्जित कर ली जाये। इतना ही नहीं उन्हें भी दूसरे शहर के धार्मिक स्थान घूमने का मोह उसी तरह रहता है जैसे कि उनके शहर आने वाले लोग रखते हैं। यह मन का खेल है जिसे योग का नियमित अभ्यास करने वाले ही समझ पाते हैं।
वैसे भी बाहर घूमने के बाद वापस आने पर मन की स्थिति यथावत हो जाती है। इसलिये अगर अपने ही घर में रहकर ही नित्य अध्यात्मिक साधना करना चाहिये ताकि मन में भटकाव न हो।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
bahut achha likhte hain kripya kuch tips dijiye ki blog kofamous kaise karte hain hamara blog hai bhannaat.com
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