पतञ्जलि योग दर्शन में कहा गया है कि
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कर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-योगी के कर्म अशुल्क (फलरहित) तथा अकृष्णं (धवल) होते हैं।---------------
कर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।।
लेखकीय व्याख्या-आमतौर से यह सवाल उठता है कि किसी मनुष्य को कैसे पहचाना जाये कि वह योगी है अथवा सामान्य? इसका सीधा जवाब है कि कर्म से ही व्यक्ति की पहचान होती है। योगी की पहचान त्याग जबकि सामान्य मनुष्य लोभ तथा मोह से होती है। योगी बिना कोई शुल्क लिये पात्र मनुष्य की सहायता करता है जबकि सामान्य मनुष्य अपनी सहायता के लिये पात्र सहयोगी ढूंढता है। हमारे यहां धर्म के नाम पर पेशेवर लोग योगी का वेश धारण कर गुरु बन जाते हैं पर वह एश्वर्य तथा वैभव एकत्रिता करते हैं उससे यह साबित हो जाता है कि वह छद्मरूप धारण किये हुए हैं। वहीं ऐसे भी अनेक योगी है जो निष्काम भाव से समाज का मार्गदर्शन बिना शुल्क लिये करते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जो सहायता व सत्संग के लिये कोई कामना न करे वही योगी है। सच्चे योग की पहचान यह है कि वह अपने लाभ के लिये किसी को भ्रमित नहीं करता न ही कभी झूठ बोलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वह वाणी विलास तथा प्रमाद से परे रहकर सांसरिक विषयों में उतना ही लिप्त रहता है जितना आवश्यक हो। अपनी बौद्धिक शक्ति वह सांसरिक विषयों पर नष्ट करने की बजाय अध्यात्मिक विषय के अध्ययन में लगाता है।
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