चाणक्य के अनुसार अर्थ के बिना धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती। इसका यह आशय सामाजिक संगठनों के कर्णधार यह प्रचारित करते हैं कि उन्हें लोग पैसा दें तो वह समाज की रक्षा करें। वह यह कभी इस बात पर चिंत्तन नहीं करते कि समाज के समस्त लोगों के पास पर्याप्त मात्रा में अर्थ या धन होगा तभी वह खड़ा रह पायेगा। धनवानों से धन लेकर सामाजिक संगठन फलते फूलते रहें पर अर्थसंकट से जूझ रहा समाज खड़ा नही रह पायेगा अंततः सामाजिक व धार्मिक संगठनों पर अस्तित्व का खतरा उत्पन्न होगा। हम देख रहे हैं कि सामाजिक व धार्मिक संगठनों के अनेक कर्णधार सामान्य जनों के बौद्धिक व धार्मिक शोषण तक ही अपनी गतिविधियां सीमित रखते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे राज्य प्रबंध पर प्रभाव रखने के लिये तत्पर इन सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों को लोग कभी देश की आर्थिक स्थिति पर कुछ नहीं बोलते।
देश में अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अनेक प्रकार के विरोधाभास हैं। भले ही विकास दर बढ़ रही हो पर आमजन पर अर्थ का भारी दबाव है। विशेषकर मध्यमवर्ग जो कि समाज की रीढ़ माना जाता है वह अस्तित्व बचाने का संघर्ष कर रहा है। इस अर्थयुग में जब पूरा बौद्धिकतंत्र ही धनपतियों के हाथ में हो वहां स्वतंत्र चिंत्तकों के पास अभिव्यक्ति के अधिक साधन नहीं है-ऐसे में बंधुआ बौद्धिक प्रचार माध्यमों पर आकर मोर्चा संभाल रहे हैं जो कि सामान्य जनमानस की मौलिक अभिव्यक्ति के संवाहक नहीं होते। अंतर्जाल पर सामाजिक जनसंपर्क पर इन स्वतंत्र मौलिक चिंत्तकों को अपने ही साधनों से चलना पड़ता है। इसके बावजूद यह देखकर खुशी होती है कि हमें सहविचारकों के शब्द यहां बहुत पढ़ने को मिलते हैं। इनमें से कई प्रेरणादायक लिखते हैं।
हमारे राज्यप्रबंध का अर्थशास्त्र ‘अमीरों से लेकर गरीबों का कल्याण करने के सिद्धांत’ पर चल रहा है। अमीर अगर ईमानदारी से अपने भाग का राजस्व दें तो शायद राज्यप्रबंध का काम सुचारु रूप से चल जाये पर ऐसा हो नहीं रहा। गरीब अमीर के संघर्ष के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखने वाले बंधुआ बुद्धिजीवी भले ही मध्यम वर्ग के हैं पर उसकी चिंता नहीं करते। गरीबों का कल्याण मार्ग एक लोकप्रिय सूत्र बन गया है इसलिये उसे अपनाकर सम्मान व पद पाने के मोह में बंधुआ बुद्धिजीवी इसी राह पर चल रहे हैं। हमें उस पर आपत्ति नहीं है पर यह तय बात है कि जब तक मध्यम वर्ग स्वतंत्रता से सांस नहीं लेगा समाज का भला नहीं हो सकता। हम आज यह बात करते हैं कि भारत दो हजार वर्ष तक गुलाम रहा। हम उसे धर्म जाति या क्षेत्र से जोड़ देते हैं पर सच यह है कि इसका कारण कहीं न कहीं अकुशल राज्य प्रबंध रहा है। इतने सारे राजा इस देश में थे पर उनमें न एकता थी न ही कुशल प्रबंध की कला थी। प्रजा के असंतोष की वजह से उन्हें अपने राज्य गंवाने पड़े।
हम आज भी चंद्रगुप्त और अशोक के राज्य की चर्चा करते हैं इसका मतलब यह है कि इतिहास में अन्य राजा अकुशल या अलोकप्रिय थे। महत्वपूर्ण यह कि वही राजा लोकप्रिय थे जिन्होंने बुद्धि, कुशलता व पराक्रम का प्रतीक मध्यमवर्गीय लोगों को प्रश्रय दिया। जिन्होंने नहीं दिया उनके नाम इतिहास के अंधेरे में खो गये। यही सत्य है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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