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Saturday, March 7, 2015

नवीन प्राचीन सामाजिक सिद्धांतों का द्वंद्व-हिन्दी चिंत्तन लेख(navin aur prachin samajik siddhanton ka yuddh-hindi thought article)



            पश्चिमी इतिहासकार राम रावण युद्ध को जब सभ्यताओं का युद्ध कहते हैं तो भारतीय धार्मिक विद्वान असहज हो जाते हैं। हम इस पर आज तक अपनी राय कायम नहीं कर पाये सिवाय इसके कि राम और रावण युद्ध दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियों का युद्ध था।  रावण अपने प्रभाव क्षेत्र में द्रव्यमय यज्ञ करने वालों की उपस्थिति स्वीकार नहीं करता था।  उसने तपस्या से वरदान प्राप्त किये थे और उसे लगता था कि भगवान की आराधना का यही मार्ग श्रेयस्कर है।  इसलिये वह अन्य पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोगों के कार्यक्रमों में बाधा डालता था।  उसी तरह महाभारत युद्ध को जमीन के लिये हुआ युद्ध माना जाता है जिसे हम धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध कहते हैं।  इस युद्ध के बारे में भी हमारी वही धारणा है जो राम रावण युद्ध के बारे में थी।  यहां हम इन युद्धों पर विचार नहीं कर रहे वरन् आज की कथित आधुनिक  सहिष्णु सभ्यता के सिद्धांतों का प्राचीन सिद्धांतों से हो रहे युद्ध की चर्चा कर रहे हैं जो निरंतर जारी है।  इसमें हथियारों के उपयोग के साथ बहस में विचार भी शस्त्र की तरह प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
            अभी बीबीसी पर दिल्ली में हुए एक बलात्कार के अभियुक्त का साक्षात्कार आया था।  इस पर महिलाओं पर की गयी टिप्पणियों पर बहस चल ही रही थी कि नागालैंड में एक बलात्कार के आरोपी को केंद्रीय जेल से निकालकर सरेराह दंडित करने का मामला आ गया।  एक तरफ दिल्ली के बलात्कारियों के अभियुक्तों का सभ्य कानूनों के तहत अभी तक सजा नहीं दिये जाने पर आधुनिक विद्वान सियापा कर रहे थे तो अब नागालैंड में अभियुक्त को जनसजा दिये जाने पर रोष जता रहे हैं।
            भारतीय अध्यात्म के पुरोधा मनु के अनुसार जो सजा बलात्कारी के लिये तय है उसका कुछ लोग  समर्थन करेंगे तो जंगली कहलायेंगे। कहा जायेगा कि आज मनुस्मृति अप्रासंगिक है। मनुस्मृति में यह तय नहीं है कि सजा कौन देगा-राज्य या जनसमूह-पर जो है उसके अनुसार बलात्कारी के लिये काफी दर्दनाक स्थिति हो सकती है।  आधुनिक सभ्यता के विद्वान उसे अमानवीय कहेंगे। इन विद्वानों के अनुसार तो पूरे विश्व में आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था का ही अनुसरण होना चाहिये  जिसमें छानबीन के बाद ही किसी को सजा मिलना चाहिये। आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था के अनुसार चाहे हजार अपराधी छूट जायें पर एक निरपराध को सजा नहीं होना चाहिये।  यह सिद्धांत ठीक है पर जिस तरह की आधुनिक व्यवस्थायें हैं उसमें न्यायालय में जांच संस्थाओं की शक्ति भी इतनी है कि वह जिस तरह आरोप प्रस्तुत करती हैं उसी के अनुसार ही निर्णय हो सकता है।  अनेक न्यायालय तो जांच एजेंसियों की कुछ अपराधों में जांच प्रक्रिया की कमजोरी पर  ही आपत्ति कर देते हैं। न्यायाधीशों के पास अपने विवेक का अधिक उपयोग करने की अधिक सुविधा नहीं है-किताबों में लिखे नियमों के आधार पर उन्हें चलना होता है।  न्यायाधीश ईमानदार और उत्साही हो तो भी उसे जांच एजेंसियों के सहयोग पर ही निर्भर होना होता है।  इन्हीं जांच एजेंसियों पर कभी कभी  अपराधियों को बचाने या कमजोर आरोप पत्र बनाने का आरोप भी लगता है।  ऐसे में न्याय में विलंब भी होता है जिससे पक्षकार परेशान होते हैं।
            जब पूरे विश्व में अपराध बढ़ रहे हैं और आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था उनका सामना नहीं कर पा रही तो समाज में निराशा होना स्वाभाविक है।  तब प्राचीन सभ्यता के सिद्धांतों के प्रति लोगों में झुकाव हो रहा है।  यह अलग बात है कि अहिंसक चर्चा के साथ साथ कहीं हिंसा भी हो रही है।  आजकल समाज पर आधुनिक प्रचार माध्यमों का प्रभाव इतना है कि लोग उनसे संचालित हो रहे हैं।  ऐसे में जब प्रचार माध्यम कहीं निराशा का माहौल पैदा करते हैं तो उससे उपजा क्रोध भी अपना काम कहीं न कहीं दिखाता है।  हमें ठीक नहीं पता कि दीमापुर में क्या हुआ पर इतना हमने जरूर देखा कि दिल्ली के प्रकरण की चर्चा की पूरे भारत में प्रतिकिया हुई थी।  एक बलात्कारी को सजा न दिये जाने पर प्रचार माध्यमों ने जो निराशा पैदा की वह एक बलात्कार के आरोपी पर जनसजा के रूप में प्रकट हुई तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हालांकि इस घटना को मानवीय ठहराये जाने पर यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता-क्योंकि भीड़ जब आक्रोश में होती है तब यह संभव नहीं है कि वह सत्य तर्क के आधार पर किसी के अपराधी या निरपराधी होने पर विचार करे।
            वैसे तो अनेक स्थानों पर जनता के हत्थे चढ़े बलात्कार के आरोपी मौत के गाल में समा चुके हैं पर चूंकि दिल्ली का प्रकरण प्रचार माध्यमों में चल ही रहा था तब दीमापुर में बलात्कार के आरोपी की हत्या हुई है शायद इसलिये उसकी चर्चा हो रही है।  हमारा मानना है कि यह आधुनिक और प्राचीन सभ्य सैद्धांतिक परंपराओं का द्वंद्व है जो  फिलहाल किसी निष्कर्ष पर पहुंचता नहीं दिख रहा।  यह बात आधुनिक समाज शास्त्री स्वीकार नहंी करेंगे पर सत्य यही है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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