जीएसटी लागू करने के बाद संसद में 15 अगस्त 1947 की तरह जश्न मनाना अपने आप में आश्चर्य की बात है। हमें तो आश्चय इस बात पर हो रहा है कि राष्ट्रवादी विचारक देश में कर आतंक की बात करते रहे पर उससे देश को मुक्ति दिलाने की बजाय जीएसटी को ही एक बृहद रूप में इस तरह लागू किया जिससे व्यापारी वर्ग घबड़ा रहा है। एक मजेदार तक यह दिया जा रहा है कि जिन वस्तुओं पर 31 फीसदी के हिसाब से कई कर थे अब 28 प्रतिशत किया गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि फायदा क्या हुआ? कर की दर का आतंक तो खत्म नहीं हुआ न।
व्यापारियों को डर जीएसटी से नहीं वरन् आयकर से हैं। जीएसटी का नंबर तो लेना ही पड़ेगा जिससे उनके व्यापार पर सरकार नज़र रहेगी। इस तरह उनकी आय का अनुमान सरकार को होता रहेगा। जीएसटी के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे व्यापारियों की भीड़ में जाकर प्रत्येक से उसके आयकर भरने की राशि पूछी जाये तो पता चल जायेगा कि वह कितना गरीब हैं। सालाना तीन लाख से ऊपर कमाने वाला कर्मचारी आयकर देने को बाध्य होता है-दफ्तर में उसका हिस्सा काट लिया जाता है-जबकि बीस तीस और पचास लाख तक कमाने वाले व्यापारियों का सर्वे करें तो पता लगेगा कि कितना आयकर दे रहे हैं। आठ लाख वेतन पाने वाले कर्मचारी और दस लाख कमाने वाले व्यापारी के जीवन स्तर में भारी अंतर क्यों होता है?
समस्या यही है कि जीएसटी के आने से सबका धंधा सरकार की नज़र में आयेगा तब उनसे आयकर भी वसूल हो सकता है। यही डर इन व्यापारियों को सता रहा है वरना ग्राहक चुकाने वाले हैं तब व्यापारियों के लिये कौनसी परेशानी है। वैसे सरकार से भी यह पूछना चाहिये कि पेट्रोल, शराब व भवननिर्माण जैसे कमाऊ तथा भ्रष्टाचार वाले व्यवसायों को जीएसटी से अलग क्यों रखा गया है? जम्मूकश्मीर में तो भाजपा की सरकार है वहां इसे लागू होने से रोकना भी खतरनाक लगता है। अलबत्ता पूंजीपतियों को इससे राहत मिलेगी क्योंकि वह अपने लिये सारी सुविधायें चाहते है-एक पूंजीपति का दावा तो हमने सुना भी होगा जो एक दल के अपनी जेब में होने का दावा करता है।
No comments:
Post a Comment