कश्मीर की स्थिति के बारे में अनेक लोग अपने अपने दृष्टिकोण से राय दे रहे हैं। अनेक लोग दावा करते हैं कि वह वहां की वास्तविक सत्यता से परिचित हैं जिससे सरकार नहीं जानती। यह लोग वहां सेना की उपस्थिति पर सवाल उठाकर मानवाधिकारों के संरक्षक बनते हैं। अभी तक इनकी दाल गल रही थी पर लगता नहीं कि अब इनके प्रपंच अधिक चलेंगे।
हमारी दृष्टि से कश्मीर का जनसामान्य अपनी निष्क्रियता के कारण ऐसे तत्वों की उपेक्षा करने में नाकाम रहा है जो वास्तव में उसके लिये ही खतरनाक हैं। कश्मीर की अर्थव्यवस्था में पर्यटन व्यवसाय का अधिक योगदान है जिस कारण वहां के स्थानीय निवासियों की नियमित आय में कमी नहीं होती। यही कारण है कि कथित अलगाववादियों के आह्वान पर वह दुकानें बंद कर बैठ जाते हैं। हर शुक्रवार को धार्मिक स्थानों पर भीड़ की उपस्थिति का लाभ उठाकर अलगाववादी सरकार के विरुद्ध विषवमन करते हैं। अगर हम यह माने कि जनमानस उनके साथ है तो प्रश्न यह उठता है कि चुनावों में 70 फीसदी मतदान कैसे हो जाता है? तय बात है कि अलगाववादियों का ज्यादा प्रभाव नहीं है पर उनके छुट्टी बनाने का अवसर भी नियमित कमाई वाला जनमानस चूकता नहीं है-यही सोचकर कि वह भले ही कथित आजादी का समर्थक न हो पर दिखे जरूर ताकि कोई आपत्ति न उठाये।
अब जिस तरह 10 दिन से कश्मीर घाटी में कर्फ्यू लागू है उससे वहां के व्यवसायियों के लिये चिंत्ताजनक होगा। संभव है उनका सरकार के प्रति गुस्सा हो पर अब उन्हें उन अलगाववादियों से भी सवाल करने ही होंगे कि वह अपने बच्चों को तो अच्छे भविष्य के लिये बाहर भेजते हैं जबकि अन्य युवकों हिंसा के लिये उकसाते हैं। कुछ सामान्य कश्मीरियों के मन में यह बात अगर हो कि पश्चिमी देश मानवाधिकारों के नाम पर कभी भारत सरकार पर दबाव बनायेंगे तो भूल जायें क्योंकि वह भी अब आतंकवाद के ऐसे दौर में पहुंच गये हैं जहां से निकट भविष्य में उनका निकलना कठिन है। कश्मीर में तीस चालीस लोग किश्तों में ही मरे दस दिन हो गये हैं जबकि इसी बीच पश्चिम में फ्रांस व तुर्की में एक ही दिन की हिंसा में उससे दुगुने लोग मर चुकें हैं और विश्व प्रचार माध्यम उन्हीं में व्यस्त हैं-कश्मीर उनके लिये एक छोटी खबर की तरह चल रहा है। पाकिस्तान की अंदरूनी हालत देखने के बाद भी यह चंद कश्मीरी अगर यह सोचते हैं कि वह विश्व मंच पर साथ देकर बचायेगा तो यह भ्रम भी छोड़ दें क्योंकि भारत उसकी हर चाल नाकाम कर देगा। महत्वपूर्ण यह कि एक बार अगर कश्मीर के पर्यटन व्यवसाय का क्रम रुका तो फिर दोबारा बनना कठिन होगा। इसलिये बेहतर होगा कि सामान्य जनमानस अपनी मानसिकता में बदलाव लाये।
आखिरी बात यह कि 1500 के लगभग सुरक्षा सैनिकों को पत्थरों से घायल करने वालों पर आखिर क्या बरसाना चाहिये? गुलाब के फूल! जान लेने वाली गोली नहीं मारें! नहीं मार रहे। घायल करने वाली गोलियां भी न बरसायें क्या? जिन्हें मानवता की चिंता है वह स्वयं सैनिकों के आगे जाकर इन लोगों का सामना करें? तब पता लग जायेगा कि सामने से आता पत्थर कितना घाव दे सकता है।
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कश्मीर की वर्तमान हालत अत्यन्त गम्भीर है । जो लोग यह कहते है की वहां के लोगो के ऊपर गोली नहीं चलनी चाहिए तो फिर उन लोगो को खुद जी उनका सामना करना चाहिए । अगर आप अपने विचारों को भी एक आयाम देना चाहते है तो आप उन्हें https://shabd.in पर जाकर लिख सकते है और उन्हें दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सकते है ।
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