15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। 26 जनवरी 1950 को अपना स्वदेशी संविधान भी बना पर राज्य व शैक्षणिक प्रणाली यथावत रही। इसी कारण देश में एक नवपरतंत्र जीवन शैली का भी विकसित हुई इसका सबसे बड़ा प्रभाव नवशिक्षितों पर पड़ा। लोगों के निजी व्यवसाय में अपना पसीना बहाकर कमाने की प्रवृत्ति की बजाय नौकरी कर सभ्रांत दिखने की ऐसी प्रवृत्ति बढ़ी कि देश बेरोजगारी के ऐसे भंवर में फंसा कि अभी तक निकल नहीं पाया। हमारे यहां कहावत है कि ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ पर अब उसकी जगह कहा जाने लगा है कि ‘अपना हाथ कर्ज के साथ’। स्थिति यह हो गयी है कि नौकरी पेशा लोग कर्ज लेकर वाहन वह मकान बड़ी शान से बना रहे हैं। बाहर से विकसित दिखने वाला समाज अंदर से कितना खोखला है इसका अध्ययन करना चाहिये।
मनुस्मृत्ति में कहा गया है कि--------------सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्एतद्विद्यातसमासेन लक्षणं सुखदंःखयोः।हिन्दी में भावार्थ-किसी मनुष्य का कार्य दूसरे के अधीन है तो वह दुःख है। अपने अधीन कार्य का होना ही सुख है। यही सुखःदुःख का लक्षण है।
किसी भी राष्ट्र को तभी विकसित व शक्तिशाली माना जाता है जिसका समाज ठोस मुद्रा से सराबोर होता है। तरल मुद्रा की बहुलता कभी भी संपन्नता का प्रमाण नहीं मानी जाती क्योंकि उसका प्रवाह एक से दूसरे हाथ की तरफ होता है। आज हम देखें तो देश में अधिकतर लोगों के जीवन का आधार ही परजीवी हो गया है। ऐसे में किसी बड़े अभियान की सफलता की सोचना ही गलत है। इतना ही नहीं लोग भले ही एक दूसरे को आपातकाल में सहायता की मदद का वादा करें पर उनमें उसे निभाने की क्षमता संदिग्ध होती है। अगर हम चाहते है कि हमारा समाज दृढ़ हो तो ऐसी आर्थिक प्रणाली अपनानी होगी जिससे लोग आत्मनिर्भर हों न कि कर्ज चुकाने में संघर्षरत रहें।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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