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Sunday, September 15, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन-बालक यदि अनाचार होतो उसे भी कड़ा दंड देना चाहिये( thought article based on manu smriti-balak yadi anachari ho to use bhee kada dan dena chahiye)




                        हमारे देश में यह देखा गया है कि अनेक नाबालिग युवक बलात्कार और हत्या के आरोप में लिप्त पाये जा रहे हैं।  हमारे देश में किशोर अपराधियों के लिये अलग से कानून है पर उसकी व्याख्या अनेक आम लोगों की समझ में नहीं आती। क्या किसी युवक की आयु अट्ठारह वर्ष से तीन, चार, या छह माह से कम हो तो उसका अपराध इसलिये कम हो जाता है कि वह बालिग नहीं है। प्रकृति का ऐसा कौनसा नियम है कि अट्ठारह वर्ष होने पर व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान हो जाता है, अगर उसकी यह आयु एक महीने या पंद्रह दिन भी कम हो तो इसका मतलब यह है कि वह पूर्ण ज्ञानी नहीं है। हास्यास्पद तो बात तब होगी जब किसी ने बालिग होने के एक दिन पहले अपराध किया हो और उस पर किशोरो के अपराध वाले कानून के तहत मुकदमा चले। दूसरी बात यह है कि बुद्धि का कौनसा पैमाना है कि यह मान लिया जाये कि मनुष्य सोलह वर्ष की आयु में कम ज्ञानी और अट्ठारह वर्ष होने पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।
                        अभी एक मामला सामने आया जिसमें एक सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के आरोप में एक नाबालिग होने के बात सामने आयी।  हैरानी की बात यह है कि इसी नाबालिग ने ही सबसे बड़ा अपराध में बढ़चढ़कर भाग लिया था पर उसे किशोर न्याय के नियमों के अनुसार हल्की सजा दी गयी।  उसके सहअपराधियों ने स्पष्ट किया कि हमें उकसाने तथा सर्वाधिक अपराध करने में उसी का हाथ है।  जब मामला सामने आया तो पता नहीं जांच एजेंसियां उम्र का विषय क्यों लेकर बैठ गयीं? दूसरी बात यह कि उसकी आयु की जांच स्वास्थ्य विशेषज्ञों से ही कराने की बात कही गयी, पर पता नहीं वह हुई कि नहीं- कहीं पढ़ा या सुना था बाद में इस बारे में कोई खबर नहीं मिली।  हमारा मानना है कि इस प्रकरण को मनोवैज्ञानिकों के पास भी भेजा जाये। वही जांच करें कि उस कथित नाबालिग की बौद्धिक आयु क्या है? जिन लोगों का जांच और अभियोजन काम काम है उन्हें मनोविज्ञानिक आधार भी लेना चाहिये।  यह कानून में नहीं लिखा है पर यह भी कहां लिखा है कि अपराध जघन्य होने पर बौद्धिक आयु का परीक्षण नहीं होगा अथवा अपराध की प्रकृत्ति देखकर यह निर्णय नहीं होगा कि यह अपराध करना ही बालिग होने का प्रमाण है। खासतौर से तब जब नाबालिग अपराधी पर पहले भी अपराधिक प्रकरण दर्ज होने की बात सामने आती हो-यह भी कहीं हमने पढ़ा या सुना था।  एक अध्यात्मिक ज्ञान साधक होने के आधार पर हमारी यह राय है कि अपराध की प्रकृत्ति देखा जाना चाहिये।  अगर दिन या माह की कमी से अपराध की प्रकृत्ति करे कम माना जायेगा तो न्याय में विसंगतियां अवश्य आयेंगी।
मनुस्मति में कहा गया है कि
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गुरुं वा बालबुद्धौ वा ब्राह्म्ण वा बहुतश्रुतम।
अतितायिनमायांन्तं हन्यादेवाविचारवन्।।
हिन्दी में भावार्थ-यदि गुरु, बालक, वृद्ध या विद्वान या बहुचर्चित मनुष्य अत्याचारी हो तो उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिये।     
परस्य पत्न्या पुरुषः सम्भाषां योजयन् रहः।
पूर्वामाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य पहले से ही कुख्यात हो और परायी स्त्री से अकेेले में मिलने का प्रयास करता हो उसे भी कड़ा दंड देना चाहिये।
                        हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता के अनुसार कानून बनते हैं। इतना ही नहीं जघन्य अपराधियों के लिये मानव अधिकारों जैसे प्रश्न उठाये जाते हैं।  यह माना जाता है कि सभी मनुष्य दैवीय प्रकृत्ति के हैं और अगर किसी से गलती हो जाये तो उसे सुधारा जा सकता है। इसके विपरीत हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि आसुरी प्रकृत्ति के लोगों को कभी सुधारा नहीं जा सकता। भारतीय क्षेत्र की प्रकृत्ति ऐसी है कि यहां यदि आदमी दैवीय प्रकृत्ति  का है तो वह छोटे अपराध करने से भी डरता है और आसुरी है तो सिवाय अपराध के उसे कुछ नहीं सूझता।  यही कारण है कि मनुस्मृति में अपराधों के लिये कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। दूसरी बात यह भी है कि अपराध और अत्याचार में अंतर होता है। अपराध हो तो किसी नाबालिग  पर पश्चिमी आधार पर बने कानून के अनुसार मामला चले हम इसका प्रतिवाद नहीं करते पर जब अत्याचार का मामला हो तब कम से कम हमने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर इसका समर्थन करना थोड़ अजीब लगता है।  हमारा यह तो मानना है कि बालिग की आयु अट्ठारह वर्ष ही रहे। किशोर कानून भी बना है तो बुरी बात नहीं है पर जघन्य अपराध के समय इस विषय की अनदेखी करते हुए अपराधियों को न्यायालय के समक्ष पेश करना चाहिये।  हमारे देश के न्यायाधीशों में इतनी विद्वता है कि वह इस बात को समझेंगे मगर उनके सामने अभियोजन पक्ष को ही मामला लाना होता है वह स्वयं कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकते।  अगर देंगे तो तमाम तरह के विवाद खड़े कर न्यायालयों पर टिप्पणियां करने वाले कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस देश में कम नहीं है। इन कार्यकर्ताओं का मुख्य लक्ष्य चर्चित मामलों में अपनी टांग फंसाकर प्रचार पाना होता है। यही कार्यकर्ता मनुस्मृति को भी अप्रासंगिक मानते हैं क्योंकि उनको अपने प्रसंगों के माध्यमों से प्रचार तथा लोकप्रियता मिलती है।          

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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