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Sunday, April 8, 2012

पतंजलि योग सूत्र-इच्छाओं का त्याग ही सन्यास है (patnjali yog sootra-ichchaon ka tyag hee snyas)

                 हमारे देश में सन्यास तथा वैराग्य को लेकर भारी भ्रम प्रचलित हैं। विषयों में आसक्ति का अभाव होने का मतलब यह माना जाता है कि मनुष्य कोई कर्म ही नहीं करे। संसार के अन्य जीवों से कटकर कहीं वन में जाकर रहने को ही सन्यास माना जाता है। दरअसल कर्म और सन्यास की जो व्याख्या श्रीमद्भागत गीता में की गयी उसे समझने में हमारा समाज असमर्थ रहा है। कर्म करना और उसके फल में आकांक्षा न होना ही सन्यास है। श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी देह के रहते बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता। वह तत्वज्ञान को जानने के बाद विषयों से प्रथक नहीं होता बल्कि उसमें आसक्ति का त्याग कर देता है। इसका सीधा मतलब यह है कि जब हम कोई काम करते हैं तो वह केवल हमें इसलिये करना चाहिए कि उससे हमारा जीवन निर्वाह होगा। इससे अधिक अपेक्षा करने पर निराशा हाथ लगती है।
                     पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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                   दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम।।
               ‘‘दिखने और सुनने वाले विषयों से सर्वथा तृष्णारहित चित्त की अवस्था है वही वैराग्य है।’’
                     तत्परं पुरुषरव्यातेर्गुणवतृष्ण्यम्।।
                 ‘‘मनुष्य के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ही परम वैराग्य है।’’
              हमें गाना सुनना है सुने। फिल्म देखनी है देखें। गाड़ी पर जाना है जायें। वैराग्य तो उनमें आसक्ति से हैं। जब हम यह सोचते हैं कि गाना सुने बगैर हमारे कान रह नहीं सकते। फिल्म देखे बिना हमारी आंखें प्यासी रह जाती हैं। गाड़ी में बैठे बिना हमारा मन तृप्त नहीं होगा। यहीं से शुरु होती है मानसिक तनाव की जो हमें ऐसी स्थिति में पहुंचाता है जहां बड़ा से बड़ा ज्ञान भी धरा का धरा रह जाता है। संसार के विषयों से हम अलग नहीं हो सकते मगर उनमें इस तरह की लिप्पता कभी सुखद नहीं होती। शराबी और जुआरी समाज में कभी विश्वसनीय नहीं होते क्योंकि सब जानते हैं कि वह उनके बिना चल नहीं सकते इस कारण किसी भी दूसरे आदमी के कर्म के योग्य नहीं है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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