समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
-------------------------


Sunday, March 1, 2009

भर्तृहरि संदेश: ज्यादा दौलत भी डर पैदा करती है

भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्


हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
---------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

No comments:

Post a Comment

अध्यात्मिक पत्रिकाएं