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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Friday, December 16, 2016

बिन अफसरशाही न इष्ट में गुन सजे न भक्त की धुन बजे.हिन्दी लेख (Bin Afasarshahi n isht mein gun Saje n Bhakt ki Dhun baje-HindiLekh)

                             इधर भक्त उधर इष्ट है।  अगर इन दोनों का कोई सम्मेलन हो तो भक्त और इष्ट एक दूसरे से पास आकर नहीं मिल सकते। बीच में पुजारी और सेवक भी होते हैं। कहीं सत्संग वगैरह हो तो वहां इष्ट का प्रत्यक्ष स्मरण होने से पहले उनके भेजे पुजारियों का सम्मान होता है। सीधी बात कहें तो न भक्त भ्रम पालें न उनके इष्ट आत्ममुग्ध हों कि उनका आपस में प्रत्यक्ष संबंध हमेशा बना रह सकता है। हम अब बात करेंगे बीच की कड़ियों की जिनका महत्व इष्ट और भक्त दोनों को समझना होगा।
                                        अभी नोटबंदी हुई। इष्ट के इस कदम पर भक्त बहुत प्रसन्न हुए पर अब कह रहे हैं कि बीच में बैंक वालों ने भांजी मार ली।  यही इनको समझना होगा कि राज्य प्रबंध हमेशा ही अधिकारियों के सहारे ही चलता है।  राज्यप्रबंध में भ्रष्टाचार है यह सब जानते हैं।  यहां तक कि भक्त भी भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हैं। मगर अब उनके पास बहाने नहीं हो सकते क्योंकि उनके इष्ट इसी राज्य प्रबंध के मुखिया हैं।  हमने भक्तों के इष्ट का गुजरात से लेकर दिल्ली तक का सफर देखा है। यहां हम भी बता दें कि चुनावी राजनीति का अनुभव हमारा शून्य है पर उसे देखते रहने का चालीस साल पुराना अनुभव है।  सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था के अंदर तो छोड़िये उसके बाहर लगी सड़क तक नहीं गये पर उसकी गतिविधियां पढ़ने का भी उतना ही अनुभव है।  इसी अनुभव के आधार पर हमारा यह अनुमान था कि यह यह पूरा सत्र ऐसे ही शोर के साथ बीतेगा क्योंकि नोटबंदी एक एतिहासिक निर्णय था और इससे ध्यान हटाकर दूसरे विषयों पर बहस करना एक मुश्किल संभावना थी।
                                  आज भी भक्तों के इष्ट का भाषण सुना जिसमें उन्होंने कहा था कि ष्नागरिकों को अधिकारियों से मुक्ति दिलानी है।
                           अपने प्रधानमंत्री बनने के तत्काल बाद भी अपने भाषण में उन्होंने गुजरात में उनके कार्यकाल की चर्चा करते हुए बताया था कि उनके सत्ता में आने से पूर्व अनेक उद्योगपतियों को पर्यावरण की राज्य प्रबंध के अधिकारियों से अनुमति नहीं मिल रही थी तब उन्होंने उनसे कहा कि वह अपना कामकाज शुरु कर दें और उसके बाद उनको सारी अनुमतियां एकल खिड़की पर तत्काल मिल जायेंगी।
                                      अब हम यह बात किसे समझायें कि इष्ट की घोषणाओं को जमीन पर भक्तों के लिये लाने वाले यही अधिकारी तथा कर्मचारी हैं। इसमें सभी भ्रष्ट नहीं है पर यह भी सच है कि जिन पदों पर मलाई होती है वहां कमाऊ प्रवृत्ति पता नहीं कैसे आ जाते हैंघ् भक्त भले ही सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को सरकार पर बोझ मानते हों पर यह सच समझ लें कि प्रधानमंत्री से चलने वाली सरकार जनता के पास तीन मुंहों में आती है.पटवारीए पुलिसथाना और पोस्टमेन। यह सभी भारत की आकस्मिक निधि से वेतन पाते हैं और जनहित के साथ काम करना इनका कर्तव्य है।  सरकार का आकार छोटा किया जा रहा है पर एक तरह से वह अपनी ताकत कम कर रही है।  अभी तब अंग्रेजों की राज्य प्रणाली काम कर रही है उसमें सरकार का यही रूप है।  अगर पसंद नहीं है तो संविधान बदल कर दूसरी बनाओं पर अगर इसी रूप में चलानी है तो प्रधानमंत्री से लेकर पटवारीए पुलिस और पोस्टमेन तक राज्य प्रबंध मजबूत करो। बीच में जो अधिकारी हैं वह स्थाई हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बदलते हैं पर उनका रुतवा कम नहीं होता।  नोटबंदी में भक्तों के इष्ट के लिये पूरी राज्यव्यवस्था को समझने का अवसर रहा होगा।  अभी तो बैंकों का रवैया देखा है अगर थोड़ा जांच करें तो प्रशासनिक संस्थायें भी भ्रष्ट रूप में सामने आयेंगी। बेहतर होगा भक्तनुमा कर्मियों का मनोबल बढ़ाकर अपना काम सिद्ध करें।
                                       हमने 33 वर्ष सेवा की और आज एक बात साफ कहें कि हमारा सौभाग्य समझें कि भ्रष्टाचार करने का अवसर हाथ नहीं आया पर यह भी मानते हैं कि हमारी कार्य तथा बौद्धिक क्षमता का उससे ज्यादा उपयोग हो सकता था जितना किया गया।  हम मन में कोई दाग लेकर नहीं निकले पर यह अफसोस रहा कि हमारा कार्यकाल एकदम सामान्य तथा निरुपयोगी रहा।  जिन मनमोहन सिंह पर भक्त हंसते हैं उनका कार्यकाल इस मायने में अच्छा रहा कि उन्होंने राज्यप्रबंध से जुड़े लोगों का बेहतर उपयोग करने के नियम बनाये पर अधिकारियों ने उन्हें अमल नहीं होने दिया।  ईमानदारए उत्साह तथा निष्ठा से काम करने के इच्छुक लोगों के लिये राज्यप्रबंध में कोई प्रेरणा नहीं है। मजे की बात यह कि अनेक भक्त हैं पर राज्यप्रबंध में अपने योगदान को लेकर निराश रहते हैं।  एक कर्मचारी के रूप में उनका मनोबल गिरा रहता है।  इस पर इष्ट की उनके प्रति उपेक्षा का भाव उन्हें थका देता है। इन निष्ठावान कर्मचारियों का मनोबल बढ़ाने काम भक्तों के इष्ट को करना ही होगा वरना करते रहो घोषणायें.कुछ होने वाला नहीं है। कालेधन और भ्रष्टाचार की पकड़ करने वाले कोई आसमान से नहीं आयेंगे।  हमने भक्तों के अनेक शिखर पुरुषों के ब्रह्वचन सुने हैं जिसमें वह सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को अकर्मण्य और भ्रष्ट बनते हैं पर जरा यह बतायें कि राज्य प्रबंध में उनके बिना जनहित कैसे किया जा सकता हैघ् हम दलनिरपेक्ष राजनीति करते हैं इसलिये सहृदय से मुफ्त में सलाह दे रहे हैं।  अच्छी लगे तो मान लेना नहीं तो भूल जाना।
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