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Saturday, February 28, 2009

चाणक्य दर्शन: विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में हैं

1.मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है ।

2.इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।

3.सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।

4.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है । जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।

5.धन की शोभा उसके उपयोग में है । धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ।
6.तेल में जल नहीं मिल सकता, घी में जल नहीं मिलता. पारा किसी से नहीं मिल सकता। इसी प्रकार विपरीत स्वभाव और संस्कार वाले एक दूसरे से नहीं मिल सकते।

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Tuesday, February 24, 2009

कबीर संदेश:पुस्तक पढने से अंहकार आता है

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि अनेक प्रकार की पुस्तकें पढ़ते हुए लोगी रोगी हो गये क्योंकि उनको अहंकार के भाव ने घेर लिया। अंदर तो इच्छााओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये अग्नि लगी होने के कारण उनको पल भर की भी शांति नहीं मिलती।

हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय


कबीरदास जी के अनुसार भक्ति के नाम पर लोग नाचते गाते हैं पर उनक हृदय का कपट नहीं जाता। भगवान को स्वयं तो समझते नहीं पर दूसरे को समझाने लगते हैं।

वर्र्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अब तो धर्म प्रचार एक तरह से व्यवसाय हो गया है। जिस तरह कोई व्यापारी किसी वस्तु को बेचते समय अपनी चीज की प्रशंसा करता है भले ही वह उसने स्वयं दूसरे से खरीदी और और उसके बारे में स्वयं न जानता हो। यही हाल धर्म प्रचारकोें और प्रवचनकर्ताओं का है वह स्वयं तो परमात्मा के बारे में जानते नहीं बस किताबों से रटे ज्ञान को बघार कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं पर प्रदर्शन ऐसा करते हैं कि जैसे बहुत बड़े ज्ञानी हो।

यही हाल आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोगों का है। अनेक विषय पढ़ने पर यह भूल जाते हैं कि किस विषय का मूल तत्व क्या है? अनेक विषयों पर निरर्थक बहसें करते हैं। केवल सीमित दायरों में सोचते हैं पर ऐसा दिखने का प्रयास करते हैं जैसे कि कोई बड़े भारी ज्ञानी हैं। आधुनिक शिक्षित लोगों की स्थिति तो बहुत दयनीय है। भारत का प्राचीतनतम अध्यात्म ज्ञान तो उनके लिये व्यर्थ है और जिन किताबों को पढ़कर उनको अहंकार आ जाता है उसकी सीमा तो कहीं नौकरी प्राप्त करने तक ही सीमित है-यानि गुलाम बनकर रहने के अलावा वह कुछ अन्य कर ही नहीं सकते। कहीं वह अपने शरीर से गुलामी करते हैं तो कहीं मानसिक गुलामी में फंस जाते हैं। उनको तो यह मालुम ही नहीं कि आजादी का मतलब क्या होता है? उनसे तो पुराने लोग बेहतर हैं जिनके पास अध्यत्मिक ज्ञान है और वह कभी भक्ति कर अपने मन को शांत कर लेते हैं जबकि आधुनिक शिक्षित व्यक्ति तो हमेशा ही अपने अहंकार के कारण मानसिक रूप से तनाव में रहते हैं।
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Monday, February 23, 2009

भर्तृहरि शतकः पूर्ण वैरागी बनो या सांसरिक बन जाओ

आवासः क्रियतां गंगे पापहारिणी वारिणि
स्तन,ये तरुपया वा मनोहारिणी हारिणी

हिंदी में भावार्थ- मनुष्य को अपने पापों से बचने के लिये गंगा के किनारे जाकर वैराग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिये या फिर सुंदर हार पहने नारी के साथ संपर्क रखते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत करना चाहिये।
वर्तमान संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में कभी भी मानसिक अंतद्वंद्व को स्थान नहीं देना चाहिए। अनेक लोगों को लगता है अगर वह विवाह नहीं करते तो सुखी रहते पर फिर भी करते हैं। विवाह करने पर धर की जिम्मेदारी आने से आदमी अनेक बार परेशान हो जाता है और तब उसे वैराग्य पूर्ण जीवन सही लगता है। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी है जो गृहस्थ होने पर वैरागी होने का दिखावा करते हैं। जिन लोगों ने पहले वैराग्य लिया वह दूसरे रूप में पुनः विषयों की तरफ लौट आते हैं। भर्तृहरि जी का संदेश यही है कि अगर हमने विषयों को ओढ़ लिया है तो फिर उनमें मन लगाते हुए अपना काम करना चाहिये। अगर वैराग्य लिया है तो फिर विषयों से परे होने चाहिये। मध्य स्थिति में फंसे होन पर केवल कष्ट ही मिल सकता है। अगर हमारे ऊपर घर की जिम्मेदारियां हैं तो उनको निभाने के लिये उसमेंं मन लगाना ही चाहिये। अगर उनसे बचने का प्रयास करेंगे तो वह भी संभव नहीं है, इसलिये उसमें मन लगाकर जूझना चाहिये। अगर जीवन में जिम्मेदारियों से बचना है तो फिर उनके बारे में सोचने से अच्छा है कि वैराग्य पहले ही लें और गृहस्थी न बसायें पर अगर बसा ली है तो उससे भागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि अगर हमने विषयों को ओढ़ लिया है तो उसमें अपनी बुद्धि के अनुसार चलना चाहिये न कि उनसे बचने का प्रयास करते हुए तनाव को आमंत्रण दें। अगर उनसे बचना है तो पूरी तरह से वैराग्य लेना चहिये
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