आज पूरे विश्व में 1 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। आधुनिक विश्व में कार्ल मार्क्स को
मजदूरों का मसीहा कहर जाता है। जबकि हमारे
यहां भगवान विश्वकर्मा को श्रम का प्रमाणिक देवता माना जाता है पर अंग्रेजी पद्धति
की शिक्षा से साक्षर हुए हमारे अनेक विद्वानों को पाश्चात्य संस्कृति, संस्कार और समाज बहुत
भाता है इसलिये ही वहां के अनेक महापुरुषों
को भी समाज से कुछ अलग दिखने के इरादे वह याद करते है। आमतौर से यह भ्रामक
प्रचार किया जाता है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से मनुष्य को पलायनवादी बनाया
जाता है जबकि सच यह है कि हमारे वेदों, पुराणों तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में परिश्रम को अत्यंत महत्व दिया गया
है। श्रीमद्भागवत गीता में तो अकुशल श्रम
को हेय मानना ही अनुचित बताया गया है। देखा जाये तो श्रीमद्भागवत गीता में सामाजिक
समरसता बनाये रखने के जो सिद्धांत है मगर उसे सन्यासियों के लिये ही उपयोगी
प्रचारित किया जाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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शतहस्त समाहार सहस्त्रहस्त सं किर।
कृतस्य कार्यस्य चहे स्फार्ति समावह।।
हिन्दी में भावार्थ-हे मनुष्य तू सौ हाथाों
वाला होकर धनार्जन कर और हजार हाथो वाला बनकर दान करते हुए अपने कर्तव्य से उन्नति
की तरफ बढ़।
व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पाप हत्यया।।
हिन्दी में भावार्थ-शुद्धता बरतने वाला
मनुष्य सदा पीड़ा से दूर रहता है और पुरुषार्थी पुरुष कभी पाप कर्म नहीं करता।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पुरुषार्थी पुरुष
ही श्रेष्ठ है। इतना ही नहीं जो कर्म के
आधार पर मनुष्य में भेद नहीं रखता वही ज्ञानी और सुखी है। यह सच है कि भारतीय समाज
में सामान्य लोग परिश्रमी को गरीब समझते हैं पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि सभी
अज्ञानी है। दूसरी बात यह कि आज के हम जिन
कथित विकासवादी बुद्धिजीवियों को देखते हैं तो वह अकुशल श्रमिकों, मजदूरों और गरीबों का
हित चिंत्तक होने का पाखंड करते हैं। इतना ही नहीं वह महिलाओं का उद्धार घरेलू
कार्य से निकलकर बाहर नौकरी करने में देखते हैं। उनको लगता है कि घर के काम करना
अकुशल श्रम का द्योतक है। एक अमेरिकी संस्था ने एक शोध कर यह निष्कर्ष प्रस्तृत
किया कि भारत में सामान्य महिलायें अपने घरेलू कार्यों का अगर मूल्यांकन किया जाये
तो वह अपने पुरुषों से ज्यादा कमाती हैं। इसका आशय यह है कि कोई पुरुष अपनी घरेलू
महिला के कार्यों के लिये किसी दूसरे को भुगतान करे तो वह उसकी आय से कहीं अधिक
होगा। हैरानी की बात यह कि कार्ल मार्क्स के शिष्य ही घरेलू महिलाओं के प्रति ऐसा
रवैया दिखाते हैं जैसे कि उनका गृहस्थ कर्म कोई अनुत्पादक कार्य हो।
बहरहाल हमारे भारतीय समाज में श्रम के प्रति शिक्षित तथा सभ्रांत वर्ग में
रुचि कम होती जा रही है। इसी कारण उसमें बेरोजगारी, बीमारी तथा बेचारगी की स्थिति बढ़ती दिख रही
है। कहा जाता है कि यह शरीर तब तक चलेगा जब तक इसे चलाओगे। इसका आशय यही है कि
जितना श्रम करोगे उतनी ही सांस चलेगी। हमने देखा है कि जो लोग श्रम कम करते हैं
उनकी सांसें भी अशुद्ध और विषाक्त होने लगती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि श्रम करने से
जीवन के प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है। सत्यमेव जयते, श्रममेव जयते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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