योग साधकों से जुड़े दो समाचार एक ही दिन आये जिनसे कष्ट
तथा आश्चर्य ही होता है। एक योग साधिका घर से बाहर जाकर एक पहाड़ी पर प्रतिदिन एक
निश्चित स्थान पर योग साधना करती थी। वहां एक मनोरोगी लड़का भी आकर घूमने लगा और उस
साधिका के स्थान घेर रहा था। साधिका ने उस
लड़के को अपने साधना के नियमित स्थल से दूर हटाने के लिये डांट डपट की जिससे
गुस्से में आकर उसने पत्थर मारा। सात दिन तक अस्पताल में संघर्ष करने के बाद योग
साधिका की मृत्यु हो गयी। यह हृदय विदारक घटना है। एक साधिका की मौत से हमें वाकई
अफसोस हुआ। हमें यह मालुम नहीं है कि यह अप्रिय विवाद टाला जा सकता था पर एक
अनुमान है कि कहीं न कहीं किसी से गलती तो हुई है।
एक योग साधिका जो कि एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी भी है
उसने अपने अभ्यास स्थल उद्यान में घास खोद रहे एक माली को धूल उड़ाने से रोका। वह थोड़ी देर रुका और फिर घास खोदने लगा जिससे
फिर धूल उड़ने लगी। धूल से एलर्जी होने के कारण उस प्रशासनिक अधिकारी योग साधिका को
क्रोध आ गया और उसने अपने पद का उपयोग करते हुए उस माली को शांति भंग का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिया। बाद में
प्रचार माध्यमों में हल्ला मचा तो वह माली छूट गया।
वैसे तो जीवन मृत्यु पर किसी का जोर नहीं है पर कुछ
ऐसी अप्रिय घटनायें चर्चा का विषय बनती है जिनके बारे में यह अनुमान ही होता है कि उन्हें
टाला जा सकता था। इन दोनों घटनाओं में जो
बात हमारे सामने आती है वह यह कि योग साधना के समय आसन तथा प्राणायम करते हुए शरीर
में रक्त प्रवाह तीव्र गति से होता है-उस समय मन भी अति
प्रफूल्ल होता है पर अगर उसमें व्यवधान आये तो सामान्य स्थिति से अधिक
क्रोध भी आता है जो कि स्वयं के लिये ही परेशानी का कारण बन सकता है। आष्टांग योग
में पूर्ण सिद्ध पाने वाले को तो कभी क्रोध आ ही नहीं सकता। उस पर जिसने
श्रीमद्भागवत गीता के सहज योग सिद्धांतों का अध्ययन किया तो वह क्रोध करने वाली
बात भी क्रोध वाली बात पर भी हसंता ही है।
देखने में यह आ रहा है कि कुछ लोगों ने आसन तथा
प्राणायाम को ही पूर्ण योग मान लिया है। ध्यान, धारण और समाधि के नियमों पर बहुत कम लोग ध्यान दे रहे
हैं। यही कारण है कि अनेक योग साधक इस विधा में पूर्ण पारंगत नहीं हो पाते।
दूसरी बात यह भी समझ लें कि हमारे समाज में मानसिक
रुगणता बढ़ गयी है। चाणक्य कहते हैं कि अपना धन तथा स्वास्थ्य दूसरे लोगों से
छिपाकर रखना चाहिये। जो लोग योग साधक अपने अभ्यास में नियमित लीन रहते हैं उनके
विचार, व्यक्तित्व तथा व्यवहार
में स्वाभाविक रूप से स्थिरता आती है। ऐसे
में कुछ मानसिक रुग्ण लोग उन्हें पथ से जाने अनजाने विचलित करने का प्रयास कर सकते हैं। उन पर
उत्तेजित होने से कोई लाभ नहीं है। एक योग
साधक को अपने ऊपर संयम रखना चाहिये। वैसे
योगियों के पास दंड की शक्ति होती है पर उसके प्रयोग के रूप अनेक हैं। हमेशा ही
वाणी या शरीर के अंगों से ही दंड नहीं दिया जाता। कूटनीति से अपने विपक्षी को
परास्त करने की कला योग साधक को तभी आ सकती है जब वह आठों भागों का अभ्यास केवल न
करे बल्कि उनका फलितार्थ भी समझे। नियमित योग साधकों को उन क्रियाओं से भी जुड़ना
चाहिये जिनसे मन पर नियंत्रण होता है। एक
बात याद रखें कि योग साधक होने पर अपने विशिष्ट होने का बोध तो कभी नहीं पालें। यह
अहंकार का भाव योग साधकों के लिये एक शत्रु होता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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