विश्व के अधिकांश देशों की वर्तमान राजकीय प्रबंध
संस्थाओं के संगठन का निर्माण लोकतांत्रिक पद्धति से होता है। राष्ट्र के लोगों का बहुमत जिसकी तरफ जाता है
वही राज्य प्रमुख बनता है। मूलतः यह प्रणानी सैद्धांतिक रूप से बहुत उपयुक्त है पर
जिस तरह से चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में धन का व्यय होता है
उससे राजनीति के प्रति शौकिया रुचि रखने वालों के लिये जनप्रतिनिधि बनना सहज नहीं हो
पाता। प्रचार तथा जनसंपर्क के लिये अब हार्दिक भाव से काम करने वाले कार्यकर्ता
नहीं मिलते इसलिये चयन के प्रत्याशी धन के बल पर ही मैदान में उतरते हैं। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली अमेरिका तथा
ब्रिटेन का समन्वित रूप है। अंतर इतना है कि इन देशों में अनेक प्रकार ेा आर्थिक
व्यवहार राजीनीतिक शिष्टाचार होता है और भारत में उसे नैतिक भ्रष्टाचार माना जाता
है। प्रचार माध्यमों में जिस तरह हम देख
रहे हैं उससे तो यही लगता है कि इन देशों में
कंपनियां-आधुनिक धनपतियों का वह छद्म रूप जिसे उनके स्वामी की बजाय सेवक
होने का आभास भर होता है-चुनाव में अपनी पसंद की सरकार बनवा ही लेती हैं। न ही
बनती हैं तो भी सरकार की पसंद स्वयं ही बन जाती हैं। मतलब कंपनियों के -जिनको
वामपंथी पूंजीपति तो कभी नया दैत्यावतार भी भी कहते हैं-दोनों हाथों में लड़डू रहते
हैं। अभी ब्रिटेन में हुए चुनाव में जिस
दल ने विजय पायी वह लाभ के सिद्धांत पर सरकार चलाता है और जो हारा वह सार्वजनिक
क्षेत्र का महत्व बढ़ाने के सिद्धांत पर चलता है।
हम देखते हैं कि राजकीय पदों के नाम और स्वरूप का आम
जनमानस पर प्रभाव पड़ता ही है। पहले हमारे
यहां आम बोलचाल में महाराज शब्द सम्मान से एक दूसरे को कहा जाता था अब नेताजी कहा
जाता है। अनेक साधु संत पहले अपने नाम से
महाराज या राजा शब्द लगाते थे पर अब सरकार लिखते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि
राजकीय व्यवस्था कहीं न कहीं आम जनमानस को प्रभावित करती ही है। यही कारण है कि हर
क्षेत्र में बहुमत की बात की जाती है। इस बहुमत की भावना ने भीड़तंत्र को बढ़ावा
दिया है। कोई व्यक्ति इसलिये ही पूज्यनीय
मान लिया जाता है क्योंकि उसके पास भीड़ होती है। लोकतंत्र ने समाज सेवकों, प्रचार माध्यमों तथा पूंजीपतियों का ऐसा गठजोड़
बना लिया है जिसमें अध्यात्मिक ज्ञान अथवा प्राकृतिक सिद्धांतों की मान्यता पर
चलने का महत्व कम कर दिया है। उससे बुरी बात यह कि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण
के दोष को पैसे, पद और प्रतिष्ठा
की आड़ में छिपने का अवसर मिल जाता है।
जिसके पास भीड़ है वही श्रेष्ठ है इस नये सिद्धांत ने समाज की सोच को खोखला
कर दिया है। इतना ही नहीं जिसे अपने अपराध
या दोष छिपाना है वह किराये की भीड़ एकत्रित कर अपनी छवि नायक की बना लेता है। उसी
के सहारे न केवल वह समाज परे दिखता है वरन् उसके संचालन सिद्धांतों को रौंदता चलता
है।
कोई माने या न माने अभी हाल ही के एक घटना से यह संदेश
तो पूरे देश में चला ही गया है कि पैसे, पद और प्रतिष्ठा के दम पर कोई भी व्यक्ति कहीं भी विजेता की तरह प्रस्तुत
किया जा सकता है। भारतीय प्रचार माध्यमों
ने पिछले दो दिनों में अपनी प्रतिष्ठा जिस तरह गंवाई है उसे पाने में उनको समय
लगेगा। फिल्म क्रिकेट या अन्य प्रतिष्ठत व्यक्ति कें आभामंडल के आसपास भारतीय
समाचार जगत केंद्रित करना इस बात का द्योतक है कि पत्रकारिता से कमाई चाहे जितना
भी कोई कर ले पर उसके पास व्यवसायिक कौशल तथा प्रतिबद्धता भी है यह प्रमाणित नहीं
होता। समाचार प्रकाशन जगत को टीवी चैनलों
का अनुसरण करने की बजाय अपना कार्य
जनोन्मुख करना चाहिये ताकि लोग प्रातः टीवी चैनल से बासी हो चुकी खबरें पढ़ने को
बाध्य न हों।
हमारा मानना है कि लोकतंत्र एक राजकीय प्रबंध के संगठन की
स्थापना के लिये एक बेहतर प्रणाली है पर उसके आधार पर सामाजिक संदर्भों में उसे
भीड़तंत्र क्रे अनुसार देखना एक खतरनाक प्रयास भी है। इससे लोगों में उस
लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अविश्वास पैदा होने लगता है जिसका आधार ही उनके मत
पर टिका है। विश्व भर के लोकतांत्रिक नायकों को इस बात पर विचार करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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