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Wednesday, November 30, 2011

पतंजलि योग सूत्र-आदमी स्वयं अहिंसक हो तो उसके शत्रु नहीं बनते (ahinsa aur aadmi-patanjali yog sahitgya)

              श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है कि इस संसार के सारे पदार्थ परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित पर वह उनमें नहीं है। यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि इस संसार के देहधारी जीव के संकल्प से गहरा संबंध है क्योंकि वह अंततः उसी परमात्मा का अंश हैं। इसलिये जीव भले ही इस संसार और भौतिक पदार्थों को धारण करे वह उसमें अपना भाव लिप्त न करे। हम अगर योग साधना और ध्यान करने के साथ श्रीमद्भावगत गीता का अध्ययन करें तो धीरे धीरे यह बात समझ में आने लगेगी कि यह संसार की प्रकृति और इसमें स्थित समस्त पदार्थ न बुरे हैं न अच्छे, बल्कि वह हमारे संकल्प के अनुसार कभी प्रतिकूल तो कभी अनुकूल होते हैं। इसलिये हम अपने हृदय के अंदर अहिंसा, त्याग, तथा परोपकार के संकल्प धारण करें तो यह सारा संसार और पदार्थ हमारे अनुकूल हो जायेंगे। 
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।
           ‘‘हृदय में अहिंसा का भाव जब स्थिर रूप से प्रतिष्ठ हो जाता है तब उस योगी के निकट सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।
‘‘हृदय जब चोरी के भाव से पूरी तरह रहित हो जाता है तब उस योगी के समक्ष सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाता है।’’
          अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यह संसार बिना चालफरेब के चल नहीं सकता। यह लोगों की मानसिक विलासिता और बौद्धिक आलस्य को दर्शाता है। एक तरह से यह मानसिक विकारों से ग्रसित लोगों का अध्यात्मिक दर्शन से परे एक बेहूदा तर्क है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि सारा समाज ही मानसिक विकारों से ग्रसित है पर अधिकतर लोग इस मत के अनुयायी हैं कि जैसे दूसरे लोग चल रहे हैं वैसे ही हम भी चलें। कुछ लोग ऐसे जरूर हैं जो इस सत्य को जानते हैं और अपने देह, हृदय तथा मस्तिष्क से विकारों की निकासी कर अपना संकल्प शुद्ध रखते हुए अपना जीवन शान्ति  से जीते हैं। ऐसे लोगों संख्या में नगण्य होते हैं पर समाज के लिये वही प्रेरणास्त्रोत होते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, November 26, 2011

यजुर्वेद से संदेश-नारी को कभी आदमी से भय नहीं करना चाहिए (yajurved se sandesh-nari ko kabhi aadmi ka bhay nahin karana chahiye)

             कहा जाता है कि हमारे वेदों में नारी को हेय समझा गया है। इतना ही नहीं कुछ लोग तो इसी कारण वेदों को पठनीय मानकर उनका तिरस्कार करते हैं।  जबकि इस बात ज्ञानी ही जानते हैं कि वेदों में ही स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री का संसार नीरस होने की बात बताई गयी है। वेदों में स्त्री को छुईमुई बने रहने की बजाय शक्तिशाली और पराक्रमी बनने की बात कहीं जाती है। धर्म का आधार स्त्री और पुरुष दोनों एक ही समान है इसलिये किसी भी पुरुष के साथ योग्य स्त्री होने पर उसे जीवन संघर्ष में पार लगा देती है। जो पुरुष अपनी स्त्री को हेय मानकर उनको पराक्रमी या शक्तिशाली नहीं बनने देते वह स्वयं ही कष्ट उठाते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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मां भेर्मा सं विवस्था उर्ज हात्स्व धिषणे वीड्वी सती वीऽयेथासूर्ज दधाधाम्।
पाम्पा हतो न सोमः।।
            ‘‘हे नारी, तुम दैहिक शक्ति से युक्त हो जाओ, पति से न डरो न कांपो बल्कि पराक्रम धारण कर। तुम दोनों स्त्री पुरुष पराक्रमी होकर बल धारण करो। उत्तम व्यवहार से दोनों अपने दोष दूर कर चंद्रमा के समान गुणी बनकर अपना जीवन आनंदित करो।’’  
          आजकल हम नारी जाति में आये बदलाव के लिये पश्चिमी संस्कृति को श्रेय देते नहीं थकते जबकि सच यह है कि यह हमारे खून में ही है कि समय के अनुसार हमारा समाज विकास के पथ पर चलता है।  यह अलग बात है कि हमारे देश के समाज पर नियंत्रित करने वाले समूह चाहते हैं कि भारतीय समाज वेदों, उपनिषदों तथा अन्य महाग्रंथों से दूर रहे ताकि वह पश्चिम का ज्ञान यहां बघारकर अपने आधुनिक होने के साथ ही शक्ति केंद्रों पर अपना नियंत्रण बनाये रखें।  कहा जाता है कि इन वेदों की रचनाऐं ऋषियों ने की तो पर यह भी  कहा जाता है कि इसमें स्त्रियों का भी योगदान रहा है। इसी कारण इसमें लिखे गये श्लोंको ऋचायें कहा जाता है। ऋषि शब्द पुरुष के लिये तो ऋचायें शब्द स्त्रियों के लिये प्रयुक्त हुआ है। महर्षियों के कथनों को ऋचाओं ने लिखा इसी कारण संस्कृत में रचे गये इन रचनाओं को ऋचायें भी कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि वेदों में कही गयी बातों का गूढ़ अर्थ है पर इसे सहजता से ज्ञानी लोग ही समझ पाते हैं। अज्ञानियों के लिये तो यह काला अक्षर भैंस बराबर है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, November 20, 2011

संकट निवारण के लिए ॐ (ओम शब्द) का जप करना श्रेष्ठ-अथर्ववेद से संदेश (sankat nivaran ke liye om shabd ka jap shreshth )

             भारतीय अध्यात्म में ओउम या ओम शब्द (ॐ) को परमात्मा के निरंकार स्वरूप का प्रतीक माना गया है।  ओम शब्द के उच्चारण से शरीर की नस नाड़ियों में जो सक्रियता आती है वह हृदय  में सकारात्मक भाव उत्पन्न होता है।श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि अक्षरों में परम अक्षर ओम है। अनेक अध्यात्मिक विद्वान भी यह मानते हैं कि ओम शब्द के जाप से देह के समस्त अंग सक्रिय होने के साथ उत्साहित हो उठते हैं। यही कारण है कि अनेक योग साधक आसन, ध्यान और प्राणायाम के बाद ओम शब्द का जाप करते हैं। यह योग साधना के दौरान देह के विकार रहित होने के साथ ही मन की पवित्रता और विचारों की जो शुद्धि प्राप्त होती है उसे आत्मिक स्थिरता प्रदान करता है। ओम अत्यंत सूक्ष्म शब्द है पर जाप करने पर देह के स्वास्थ्य, मन की पवितत्रता और विचारों की शुद्धता कर उनको व्यापक रूप प्रदान कर यह मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य रूप से तेजस्वी बनाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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त्रयः सुवर्णासिवृत यदायत्रेकाक्षरमभि-संभूय शका शका।
प्रत्योहन्मृत्युमृतेन साकसन्तदंधाना दुरितानी विश्वा।।
     ‘‘जब समर्थ तीन स्वर्ण एक अक्षर में तिहरे होकर मिल रहे हें तब वह अमृत के साथ सब अनिष्टों को मिटाकर मृत्यु को दूर करते हैं।’’
            अध्यात्म के साथ स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का मानना है कि मौन होकर सुखपूर्वक बैठने के बाद अपनी वाणी ने ॐ (ओम)शब्द का जाप करना अत्यंत श्रेयस्कर है क्योंकि इस दौरान मनुष्य का ध्यान शनैः शनै अपनी नियमित दिनचर्या से हटकर निरंकार परमात्मा में लग जाता है। इससे मनुष्य में मनोविज्ञानिक रूप से दृढ़ता आती है। ओम दो नहीं तीन शब्द हैं-अ उ म। इस तरह प्रत्येक शब्द को एक एक करके वाणी से इस तरह उच्चारित करना चाहिए कि पहले शब्द अ और तीसरे शब्द म में जितना समय लगे उससे आधा दूसरे शब्द उ में लगे। इस तरह ध्यान की शक्ति का संचार होता है जो कि आत्मिक रूप से पुष्ट होने में सहायक होती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक साधक ओम शब्द के उच्चारण को अत्यंत सावधानी और ध्यान से उच्चारित करते हैं। जितनी गहराई से ओम शब्द उच्चारित किया जाता है उतना ही तेज शनैः शनैः मनुष्य की वाणी, विचार, और व्यवहार में उसका तेज प्रकट होता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, November 12, 2011

ऋग्वेद से संदेश-हम उत्तम बल के स्वामी बने

             सामान्य मनुष्य अनेक बार परिवार, मित्र तथा समाज के दबाव में अनेक बार ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनका स्वयं का मन उद्विग्न हो उठता है। इसके विपरीत ज्ञानी हमेशा ही अपने मन को प्रसन्न करने वाले ही कर्म करते हैं। यह बात हम धार्मिक कर्मकांडों अवसर पर देख सकते हैं जब परिवार, समाज तथा मित्रों के दबाव में आदमी उनका निर्वाह करता है यह जानते हुए भी यह ढकोसला है। खासतौर से विवाह, गमी तथा अन्य कार्यक्रमों के समय दिखावे के लिये ऐसे अनेक कर्मकांड रचे गये हैं जिनको केवल दिखावे के लिये ही धर्म का प्रतीक माना जाता है। हमारे अनेक महान विद्वानों ने धार्मिक कर्मकांडों तथा अध्यात्मिक ज्ञान के अंतर को स्पष्ट किया है। यह अलग बात है कि समाज में उनका नाम को सम्मान दिया जाता है पर उनके संदेश कोई नहीं मानता। यही कारण है कि जब किसी के घर में शादी या गमी का अवसर आता है तो वह अपना सुख दुःख भूलकर केवल अपनी जिम्मेदारी निभाने का तनाव झेलता है। उसके मन में यही ख्याल आता है कि ‘अगर मैंने यह नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे’।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
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श्रिय मनांसि देवासो अक्रन्
‘‘ज्ञानी निज अपने हृदय को प्रसन्न करने वाले कर्म करते हैं।’’
सुवीर्यस्य पतयः स्याम।
‘‘हम उत्तम बल के स्वामी बनें।’’
अगर मनुष्य चाहे तो स्वयं को योगसाधना तथा अध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन से मानसिक रूप से दृढ़ होने के साथ ही दैहिक रूप से बलवान भी बना सकता है। हमारे हिन्दू धर्म की पहचान उसके कर्मकांडों से नहीं वरन् उसमें वर्णित तत्वज्ञान से है जिसका लोह आज पूरा विश्व मानता है। अगर हम अपने अंदर कर्मकांडों के निर्वहन का तनाव पालेंगे तो कभी शक्तिशाली नहीं बन सकते। जहां धर्म से कुछ पाने का मोह है वहां सिवाय तनाव के कुछ नहीं आता। मन में धर्म के प्रति त्याग का भाव हो तो स्वतः मन स्फूर्त हो जाता है। इस त्याग को भाव को तभी समझा जा सकता है जब हम परोपकार, ज्ञान संग्रह तथा हृदय से भगवान की भक्ति करेंगे।
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Sunday, November 6, 2011

ऋग्वेद से संदेश-समझदार लोग सभी के दिल को अच्छे लगने वाले काम ही करते है (rigved se sandesh-gyani logon ka dil)

             सामान्य मनुष्य अनेक बार परिवार, मित्र तथा समाज के दबाव में अनेक बार ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनका स्वयं का मन उद्विग्न हो उठता है। इसके विपरीत ज्ञानी हमेशा ही अपने मन को प्रसन्न करने वाले ही कर्म करते हैं। यह बात हम धार्मिक कर्मकांडों अवसर पर देख सकते हैं जब परिवार, समाज तथा मित्रों के दबाव में आदमी उनका निर्वाह करता है यह जानते हुए भी यह ढकोसला है। खासतौर से विवाह, गमी तथा अन्य कार्यक्रमों के समय दिखावे के लिये ऐसे अनेक कर्मकांड रचे गये हैं जिनको केवल दिखावे के लिये ही धर्म का प्रतीक माना जाता है। हमारे अनेक महान विद्वानों ने धार्मिक कर्मकांडों तथा अध्यात्मिक ज्ञान के अंतर को स्पष्ट किया है। यह अलग बात है कि समाज में उनका नाम को सम्मान दिया जाता है पर उनके संदेश कोई नहीं मानता। यही कारण है कि जब किसी के घर में शादी या गमी का अवसर आता है तो वह अपना सुख दुःख भूलकर केवल अपनी जिम्मेदारी निभाने का तनाव झेलता है। उसके मन में यही ख्याल आता है कि ‘अगर मैंने यह नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे’।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
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श्रिय मनांसि देवासो अक्रन्

‘‘ज्ञानी लोग   अपने हृदय को प्रसन्न करने वाले कर्म करते हैं।’’
सुवीर्यस्य पतयः स्याम।
‘‘हम उत्तम बल के स्वामी बनें।’’
अगर मनुष्य चाहे तो स्वयं को योगसाधना तथा अध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन से मानसिक रूप से दृढ़ होने के साथ ही दैहिक रूप से बलवान भी बना सकता है। हमारे हिन्दू धर्म की पहचान उसके कर्मकांडों से नहीं वरन् उसमें वर्णित तत्वज्ञान से है जिसका लोह आज पूरा विश्व मानता है। अगर हम अपने अंदर कर्मकांडों के निर्वहन का तनाव पालेंगे तो कभी शक्तिशाली नहीं बन सकते। जहां धर्म से कुछ पाने का मोह है वहां सिवाय तनाव के कुछ नहीं आता। मन में धर्म के प्रति त्याग का भाव हो तो स्वतः मन स्फूर्त हो जाता है। इस त्याग को भाव को तभी समझा जा सकता है जब हम परोपकार, ज्ञान संग्रह तथा हृदय से भगवान की भक्ति करेंगे।
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Thursday, November 3, 2011

भारतीय वेद शास्त्रों से संदेश-कर्म के फल का कोई नियम नहीं है

        हर मनुष्य की अपनी कल्पना है। सभी लोग अपने कर्म का फल तत्काल चाहते हैं तो कुछ लोग थोड़ी प्रतीक्षा करने को तैयार भी रहते हैं पर एक समय पर उनका भी धीरज जवाब देने लगता है। यह सत्य है कि हर मनुष्य को अपने कर्म का फल मिलता है पर उसका कोई ऐसा नियम तय नहीं है कि कब मिलेगा। किसी भी कर्म का फल मिलता है उसमें देर सबेर हो सकती है। हालांकि यह भी   कोई नियम नहीं है कि सभी कर्मों का फल कर्ता की इच्छानुसार प्राप्त हो। शायद यही कारण है कि हमारे यहां अध्यात्मिक दर्शन में सांसरिक कर्म में निष्काम कर्म की बात कही गयी है।
वेदांत दर्शन में कहा गया है कि
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उपलब्धिवदनियमः।
‘‘भोगों की प्रप्तियों की भांति कर्म करने में भी कोई नियम नहीं है।
यथा तक्षाभयथा।
इसके सिवाय जैसे कारीगर कभी काम करता है कभी नहीं करता है।
          वैसे फल की इच्छा करते हुए जब कर्म किया जाता है तो हमारा मन विचलित होने के साथ मस्तिष्क की एकाग्रता भंग होने की आशंका रहती है और कर्म उचित प्रकार से संपन्न नहीं हो पाता। दूसरी बात यह भी है कि जब कर्म के बाद फल प्राप्त नहीं होता या उसमें विलंब होता है तो व्यर्थ का तनाव पैदा होता है। हमें यह समझना चाहिए कि प्रकृति भी एक कारीगर की तरह है जो कभी कर्म करती है कभी नहीं करती है। मनुष्य का यह धर्म है कि वह अपना नियमित कर्म करे पर फल देने या न देने की का निर्णय प्रकृति पर छोड़ देना चाहिए।
        मूल बात यह है कि हमें अधिक अपेक्षायें, इच्छायें और कामनायें मन में नहीं रखना चाहिए। कालांतर में उनके पूर्ण होने पर सुख मिलता है और न मिलने पर दुःख होने लगता है। तत्वज्ञानी इसलिये ही सुख, दुख, प्रसन्नता, शोक तथा मान सम्मान से परे हो जाते हैं क्योंकि वह जानते है इस संसार में सभी चीजें नश्वर हैं। सत्य जहां सूक्ष्म और स्थिर है वहीं माया विस्तार पाने के साथ ही रूप बदलती है। उत्पन्न होकर नष्ट होना फिर प्रकट होना माया की सामान्य प्रकृति है। जिस तरह सत्य या परमात्मा अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। उसके नियम समझना भी कठिन है।
इसके विपरीत सामान्य मनुष्य माया को अपने वश करने कें लिये पूरी जिंदगी दाव पर लगा देता है पर हाथ उसके कुछ नहीं आता। खेलती माया है उसके नियम अज्ञात हैं फिर भी आदमी यही सोचता है कि वह अपने नियमों के अनुसार खेल रहा है। सृष्टि के अपने नियम हैं और वह अपने अनुसार चलती है। हमारे अनेक सांसरिक कार्य स्वतः होते है जबकि हम कर्ता होने के अहंकार में उनको अपने हाथ से संपन्न समझ लेते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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