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Sunday, April 27, 2014

अहिंसक मनुष्य कभी कष्ट नहीं उठाता-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(ahinsak manushya kabhi kasht nahin uthata-manus smriti)



            प्रकृत्ति का नियम है जैसा बोओगे वैसा काटोगे। अहिंसा तथा परमार्थ का मार्ग अपनाने वाले इस बात को जानते हैं कि अपने सत्कर्म कभी न कभी उनके लिये अच्छा परिणाम देने वाले होंगे पर दुष्कर्म करने वालों को अपने भावी दंड का अनुमान पहले से नहीं होता।  श्रीमद्भागवत गीता के गुण तथा कर्म विभाग का अगर ध्यान से अध्ययन किया जाये तो इस बात का ज्ञान हो जाता है कि इस त्रिगुणमयी मायावी संसार में बीज के अनुरूप ही फल प्रांप्त होता है। हर मनुष्य रहन सहन की स्थिति, खान पान के रूप तथा संगति के प्रभाव के अनुसार काम करता है।  हम अक्सर यह सोचते हैं कि अपनी बुद्धि से काम कर रहे हैं पर इस बात का आभास नहीं होता कि देह के तत्वों से वह प्रभावित भी होती है।
            कभी हम एकांत चिंत्तन के समय अपने अंतर्मन की गतिविधियों पर दृष्टिपात करें तो इस बात का आभास होगा कि हम अपने खान पान, रहन सहन तथा संगति के अनुरूप व्यवहार करते हैं। अगर हमें अच्छे काम करने हैं तो अपने रहन सहन, खान पान तथा संगति को भी शुद्ध रखना होगा।

मनु स्मृति में में कहा गया है कि
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यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।
     हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है  अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।
     हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।

     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य  परमार्थ और दूसरा असत्य हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
      वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। जहा माँसाहारी उग्र होते हैं वहीँ शाकाहारी शांत स्वाभाव के पाए जाते हैं| अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, April 24, 2014

धर्म की पहचान वाले दस लक्षण-मनु स्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(dharm kee pahachan wale das lakshan-manu smriti)



            हमारे देश में धर्म चर्चा अधिक ही होती है।  चाहे शिक्षित हो या अशिक्षित, चिकित्सक हो या मरीज, शिक्षक हो र्या छात्र कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो स्वयं को धर्मभीरु साबित करने का कोई अवसर छोड़ता है। इसके बावजूद धर्म को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम हमारे देश में प्रचलित हैं। इतना ही नहीं अनेक कथित धार्मिक विद्वान अपनी सुविधानुसार धर्म की परिभाषा भी बदलते रहते हैं। पेशेवर धार्मिक बुद्धिमान जितना धर्म का उपयोग अपने लिये करते हैं उतना शाायद ही किसी अन्य पेशे के लोग कर पाते हैं। अनेक वणिक वृत्ति के लोगों ने धर्म के नाम पर अपने महलनुमा आश्रम बना लिये हैं। इतना ही नहीं उनके पास परिवहन के ऐसे आधुनिक वाहन भी उपलब्ध हो गये हैं जिनकी कल्पना केवल अधिक धनी ही कर पाते हैं।

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिवनिग्रहः।
धीविंद्या सत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम्।।

      हिंदी में भावार्थ-धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, मन वचन तथा कर्म में शुद्धता,इंद्रियों पर नियंत्रण, शास्त्र का ज्ञान रखना,ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना, सच बोलना, क्रोध और अहंकार से परे होकर आत्मप्रवंचना से दूर रहना-यह धर्म के दस लक्षण है।
दक्ष लक्षणानि धर्मस्य व विप्राः समधीयते।
अधीत्य चानुवर्तन्ते वान्ति परमां गतिम्।।

      हिंदी में भावार्थ-जो विद्वान दस लक्षणों से युक्त धर्म का पालन करते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं।

      वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में किसी धर्म का नाम देखने को नहीं मिलता है। अनेक स्थानों पर कर्म को ही धर्म माना गया है अनेक जगह मनुष्य के आचरण तथा  लक्षणों से पहचान की जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि हमारा धर्म पहले सनातन धर्म से जाना जाता था पर इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि इंसान को इंसान की तरह जीने की कला सिखाने वाला हमारा धर्म ही सनातन काल से चला आ रहा है। धर्म का कोई नाम नहीं होता बल्कि इंसानी कि स्वाभाविक वृत्तियां ही धर्म की पहचान है। इस संसार में विभिन्न प्रकार के इंसान हैं पर वह  मनु द्वारा बताये गये धार्मिक लक्षणों पर चलते हैं  तभी वह धर्म मार्ग पर स्थित माने  जा सकते हैं। हमें इन लक्षणों का अध्ययन करना चाहिये। इसका ज्ञान होने पर यह देखने का प्रयास नहीं करना चाहिए  कि कोई दूसरा व्यक्ति धर्म मार्ग पर स्थित है या नहीं  वरन् हमें स्वयं देखना है कि हमारा अपना  मार्ग कौनसा है?
      वैसे हमारे देश में जगह जगह ज्ञानी मिल जायेंगे। बड़ों की बात छोड़िये आम आदमियों में भी ऐसे बहुत लोग हैं जो खाली समय बैठकर धर्म की बात करते हैं। ज्ञान की बातें इस तरह करेंगे जैसे कि उनको महान सत्य बैठ बिठाये ही प्राप्त हो गया है। मगर जब आचरण की बात आती है तो सभी कोरे साबित हो जाते हैं। कहते हैं कि जैसे लोग और जमाना है वैसे ही चलना पड़ता है। अपने मन पर नियंत्रण करना बहुत सहज है पर उससे पहले यह संकल्प करना पड़ता है कि हम धर्म का मार्ग चलेंगे। धर्म की लंबी चैड़ी व्याख्यायें नहीं होती। परिस्थतियों के अनुसार खान पान में बदलाव करना पड़ता है और उससे धर्म की हानि या लाभ नहीं होता। वैसे खाने, पीने में स्वाद और पहनावे से आकर्षक  दिखने का विचार छोड़कर इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि हमारे स्वास्थ्य के लिये क्या हितकर है? दूसरा क्या कर रहा है इसे नहीं देखना चाहिये और जहां तक हो सके अन्य लोगो के कृत्य पर टिप्पणियां करने से भी बचें। जहां हम किसी की निंदा करते हैं वहां हमारा उद्देश्य बिना कोई परोपकार का काम किये बिना स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है। यह निंदा और आत्मप्रवंचना धर्म विरुद्ध है। सबसे बड़ी बात यह है कि एक इंसान के रूप में अपने मन, विचार, बुद्धि तथा देह पर निंयत्रण करने की कला का नाम ही धर्म है और मनु द्वारा बताये गये दस लक्षणों से अलग कोई भी दृष्टिकोण धर्म नहीं हो सकता।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, April 22, 2014

चाटुकारिता में जीवन व्यर्थ न करें-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख (chatukarita mein jiwan vyarth na karen-bhartrihare neeti shatak)



            वर्तमान भौतिक युग में जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा है उनका आभा मंडल समाज में इतना व्यापक होता है कि हर सामान्य आदमी उनके पास पहुंचकर अपना कल्याण पाना चाहता है।  यह अलग बात है कि ऐसे कथित महापुरुष सामान्य लोगों से कहीं अधिक डरपोक, लालची तथा अहंकारी होते हैं।  अपनी उपलब्धि का मद उन्हें हमेशा ही धेरे रहता है। यह समाज का शोषण कर सारी सफलता प्राप्त करते हैं पर सामान्य आदमी फिर उनसे दयालुता दिखाने की आशा करता है।  देखा यही जा रहा है कि वही शिखर पुरुष समाज में प्रतिष्ठ प्राप्त करता है जो अपने इर्दगिर्द चाटुकारों की सेना एकत्रित करता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
     हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है? हमारी अभिलाषाओं  और आकांक्षाओं  की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में अधिक धन, बड़ा पद तथा प्रतिष्ठत छवि  पाने की लालसा स्वाभाविक रूप से होती  है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई होती  है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

     लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और आशा भरी दृष्टि स ताकते हुए  उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगों  को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल होता है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देते हैं तो केवल चाटुकारिता  के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर। इस संसार में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसके मद में डूबने से बच पाते हैं।  अधिकतर लोग तो अपनी शक्ति के अहंकार में अपने से छोटे आदमी को कीड़े मकौड़े जैसा समझने लगते हैं और उनकी चमचागिरी करने पर भी कोई लाभ नहीं होता।  अगर ऐसे लोगों की निंरतर सेवा की जाये तो भी सामान्य से कम प्रतिफल मिलता है।
      सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।इस संसार में प्रसन्नता से जीने का एक ही उपाय है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही जीवन भर चलते रहें।  अपने से बड़े आदमी की चाटुकारिता से लाभ की आशा करना अपने लिये निराशा पैदा करना है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ 
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, April 19, 2014

राजनीति में रूप बदलना ही पड़ता है-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(rajneeti mein roop badalnaa hee padta hai-bhartrihari neeti shatak ka aadhar par chinttan lekh)



      यह एक ध्रुव सत्य है कि राजनीति करने वाले को अनेक तरह के रंग दिखाने ही पड़ते हैं। जो अपना जीवन शांति, भक्ति और अध्यात्म ज्ञान के साथ बिताना चाहते हैं उनके लिये राजनीति करना संभव नहीं है। ज्ञानी लोग इसलिये राजनीति से समाज में परिवर्तन की आशा नहीं करते बल्कि वह तो समाज और पारिवारिक संबंधों में राज्य के हस्तक्षेप का कड़ा विरोध भी करते हैं।  सामान्य भाषा में राजनीति का सीधा आशय राज्य प्राप्त करने और उसे चलाने के कार्य करने के लिये अपनायी जाने वाली नीति से है। बहुरंगी और आकर्षक होने के कारण अधिकतर लोगों को यही करना रास आता है। अन्य की बात तो छोडि़ये धार्मिक किताब पढ़कर फिर उसका ज्ञान लोगों को सुनाकर पहले उनके दिल में स्थान बनाने वाले कई कथित गुरु राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिये उसमें घुस जाते हैं-यह लोकतंत्र व्यवस्था होने के कारण हुआ है क्योंकि लोग राजनीति विजय को प्रतिष्ठा का अंतिम चरम मानते हैं। लेखक, पत्रकार, अभिनेता-अभिनेत्रियां तथा अन्य व्यवसायों मं प्रतिष्ठत लोग राजनीति के अखाड़े को पसंद करते हैं। इतना ही नहीं अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोग राजनीति में शीर्ष स्थान पर बैठे लोगों की दरबार में हाजिरी देते हैं तो वह भी उनका उपयोग करते हैं। लोकतंत्र में आम आदमी के दिलो दिमाग में स्थापित लोगों का उपयोग अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। कोई व्यक्ति अपने लेखन, कला और कौशल की वजह से कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो वह उससे सतुष्ट नहीं होता वरन उसे   लगता है कि स्वयं को चुनावी राजनीति में आकार कोई प्रतिष्टित किये  स्थापित किये बिना वह अधूरा है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च

हिंस्त्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या |

नित्यव्यया प्रचुरनित्य धनागमा च

वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा ||

     हिंदी में भावार्थ-राज्यकर्म में लिप्त राजाओं को राजनीति करते हुए बहुरुपिया बनना ही पडता है। कभी सत्य तो कभी झूठ, कभी दया तो कभी हिंसा, कभी कटु तो कभी मधुर कभी, धन व्यय करने में उदार तो कभी धनलोलुप, कभी अपव्यय तो कभी धनसंचय की नीति अपनानी पड़ती है क्योंकि राजनीति तो बहुरुपिया पुरुष और स्त्री की तरह होती है।

      यहाँ हम बता दें कि राजनीति से हमारा आशय आधुनिक चुनावी राजनीति  से है| व्यापक रूप से इस शब्द का अर्थ विस्तृत है|  राजसी कर्म हर व्यक्ति को करने होते हैं और उसे उसके लिए नीतिगत ढंग चलना ही होता है| यानी अपने अर्थकर्म के लिए रजा हो या रंक सभी को राजनीति करनी ही होती है|
      राजनीति तो बहुरुपिये की तरह रंग बदलने का नाम है। लोकप्रियता के साथ कभी अलोकप्रिय भी होना पड़ता है। हमेशा मृद भाषा से काम नहीं चलता बल्कि कभी कठोर वचन भी बोलने पड़ते हैं। हमेशा धन कमाने से काम नहीं चलता कभी व्यय भी करना पड़ता है-लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो भारी धन का व्यय करने का अवसर भी आता है तो फिर उसके लिये धन संग्रह भी करना पड़ता है। कभी किसी को प्यार करने के लिये किसी के साथ घृणा भी करना पड़ती है।
      यही कारण है कि अनेक लेखक,कलाकार और प्रसिद्ध संत चुनावी  राजनीति से परे रहते हैं। हालांकि उनके प्रशंसक और अनुयायी उन पर दबाव डालते हैं पर वह फिर भी नहीं आते क्योंकि राजनीति में हमेशा सत्य नहीं चल सकता। अगर हम अपने एतिहासिक और प्रसिद्ध संतों और लेखकों की रचनाओं को देखें तो उन्होंने राजनीति पर कोई अधिक विचार इसलिये नहीं रखा क्योंकि वह जानते थे कि राजनीति में पूर्ण शुद्धता तो कोई अपना ही नहीं सकता। आज भी अनेक लेखक, कलाकर और संत हैं जो राजनीति से दूर रहकर अपना कार्य करते हैं। यह अलग बात है कि उनको वैसी लोकप्रियता नहीं मिलती जैसे राजनीति से जुड़े लोगों को मिलती है पर कालांतर में उनका रचना कर्म और संदेश ही स्थाई बनता है। राजनीति विषयों पर लिखने वाले लेखक भी बहुत लोकप्रिय होते है पर अंततः सामाजिक और अध्यात्मिक विषयों पर लिखने वालों का ही समाज का पथप्रदर्शक बनता है।
      राजनीति के बहुरूपों के साथ बदलता हुआ आदमी अपना मौलिक स्वरूप खो बैठता है और इसलिये जो लेखक, कलाकर और संत राजनीति में आये वह फिर अपने मूल क्षेत्र के साथ वैसा न ही जुड़ सके जैसा पहले जुडे थे। इतना ही नहीं उनके प्रशंसक और अनुयायी भी उनको वैसा सम्मान नहीं दे पाते जैसा पहले देते थे। सब जानते हैं कि राजनीति तो काजल  की कोठरी है जहां से बिना दाग के कोई बाहर नहीं आ पाता। वैसे यह वह क्षेत्र से बाहर आना पसंद नहीं करता। हां, अपने पारिवारिक वारिस को अपना राजनीतिक स्थान देने का मसला आये तो कुछ लोग तैयार हो जाते हैं।

      आखिर किसी को तो राजनीति करनी है और उसे उसके हर रूप से सामना करना है जो वह सामने लेकर आती है। सच तो यह है कि राजनीति करना भी हरेक के बूते का नहीं है इसलिये जो कर रहे हैं उनकी आलोचना कभी ज्ञानी लोग नहीं करते। इसमें कई बार अपना मन मारना पड़ता है। कभी किसी पर दया करनी पड़ती है तो किसी के विरुद्ध हिंसक रूप भी दिखाना पड़ता है। आखिर अपने समाज और क्षेत्र के विरुद्ध हथियार उठाने वालों को कोई राज्य प्रमुख कैसे छोड़ सकता है? अहिंसा का संदेश आम आदमी के लिये ठीक है पर राजनीति करने वालों को कभी कभी अपने देश और लोगों पर आक्रमण करने वालों से कठोर व्यवहार करना ही पड़ता हैं। राज्य की रक्षा के लिये उन्हें कभी ईमानदार तो कभी शठ भी बनना पड़ता है। अतः जिन लोगों को अपने अंदर राजनीति के विभिन्न रूपों से सामना करने की शक्ति अनुभव हो वही उसे अपनाते हैं। जो लोग राजनेताओं की आलोचना करते हैं वह राजनीति के ऐसे रूपों से वाकिफ नहीं होते। यही कारण है कि अध्यात्मिक और सामाजिक ज्ञानी राजनीति से दूर ही रहते हैं न वह इसकी आलोचना करते हैं न प्रशंसा। अनेक लेखक और रचनाकार राजनीतिक विषयों पर इसलिये भी नहीं लिखते क्योंकि उनका विषय तो रंग बदल देता है पर उनका लिखा रंग नहीं बदल सकता।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, April 13, 2014

नाटकीयता से समाज सेवा नहीं होती-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(natkiyata se samaj sewa nahin hotee-bhartrihari neeti sahtak)

     जकल साहित्य, कला, पत्रकारिता, फिल्म, टी.वी., खेल तथा अर्थ के क्षेत्र में शिखर पर पहुंचे लोग अंशकालिक रूप से समाज  के गरीब, बेसहारा, अनाथ  तथा बीमार लोगों की सहायता करने का कार्य करने का दावा करते हैं|  चूंकि इन लोगों का नाम प्रचार जगत में अपने मूल कर्म की वजह से वैसे ही चमकता इसलिये इन्हें अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयास तो वैसे भी नहीं माना जा सकता पर कहीं न कहंी अंतर्मन में  महापुरुष की अपनी छवि बनाने की चाहत होती है जिसे वह पूरी करना चाहते हैं। अगर हम देश के समाज सेवकों की कुल संख्या का सही आंकलन करें तब यह प्रश्न उठेगा कि फिर इस देश में इतनी सारी गरीब और बेबसी कैसे अब भी विद्यमान है?
            दूसरी तरफ यह भी सच है कि मजबूरी लोगों की सहायता करना हमारे देश की रक्त प्रवाह करने वाली धमनियों में है इसलिये यह भी संभव नहीं है कि सभी समाजसेवक गलत हैं।  सच यह है कि जो वास्तव में हृदय से समाजसेवा करते हैं उनके दिमाग में कभी भी अपनी छवि महापुरुष के रूप में स्थापित नहीं करते।  उनक लक्ष्य केवल एक ही रहता है कि वह ऐसा कर अपने मानव होने पर संतोष कर सकें।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्|
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः||
     हिंदी में भावार्थ- बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल स्वयं ही वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।
       आज के आधुनिक युग में समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने वालों  समाचार नित्य प्रतिदिन  आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायता  करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इस तरह की समाज सेवा की गतिविधियों में वही लोग सक्रिय देखे जाते हैं जिनकी समाजसेवक की छवि छद्म रूप होती है जबकि दरअसल उनका लक्ष्य दूसरा ही होता है| उनके प्रयासों से  समाज का उद्धार कभी नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।   इसलिए समाज सेवा हमेशा ही निष्काम भाव से करना चाहिए|
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, April 12, 2014

सफ़ेद और काले धन की पहचान करना जरूरी-विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(safed aur kaale dhan ki pahachan karna jaroori-a hindi thought article based on viudru neeti)



      ज के भौतिक युग में सभ्य, बुद्धिमान और ज्ञानी होने का प्रमाण केवल धनी होना ही रह गया है| जिसके पास धन, उच्च पद अथवा प्रसिद्धि है उसे चर्चे समाज में हर व्यक्ति एक नायक की तरह ही करता है|  स्थिति यह है कि धार्मिक क्षेत्र में भी सुविधा संपन्न आश्रम बनवाने, धनिक लोगों का शिष्य समुदाय एकत्रित करने  तथा प्रचार समूहों में विज्ञापन से गुरुपद  धारण करने वाले अनेक महानुभाव प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचकर समाज में भ्रम फैलाते हैं| ज्ञान का रट्टा लगाकर दूसरों से धन एकत्रित करना गुरु शब्द का पर्याय बन गया है| पर्दे के सामने किसके वचन कैसे हैं यह सभी को सुनाई देता है पर दीवारों के पीछे उनका आचरण कैसा  है यह कोई नहीं देखता| आदमी आम हो या खास अधिकतर लोगों की बुद्धि का दायरा संकुचित हो गया है और धन अच्छा है या बुरा कोई समझना भी नहीं चाहता| जिसके पास धन है उसके सर्वगुण संपन्न होने का दाम करते हुए अनेक चाटुकार लोग मिल जायेंगे|

विदुर नीति में कहा  गया है कि
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असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
           
हिंदी में भावार्थ-अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
           
हिंदी में भावार्थ- धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
     जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवान  लोग कहते हैं कि अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं। इतना ही नहीं इन धनवानों के इर्दगिर्द अपने स्वार्थ कि वजह से मंडराने वाले चाटुकार लोग भी उनकी बुद्धि का महिमामंडन करते हुए नहीं थकते|

      उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर उनका तर्क सही माना जाए तो सवाल उठता है कि  अनेक धनवान अपनी बौद्धिक त्रुटियों का कारण गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय कि वजह से संकटग्रस्त होकर निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये किवह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।या अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।
      कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द चंचलाभी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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