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Tuesday, March 31, 2015

विचार व्यवहार तथा व्यक्तित्व के बौनेपन का विचार भी जरूरी-हिन्दी चिंत्तन लेख(vichar vyaktitva tathaa vyavahar ke baunepan ko pahchane-hindu hindi thought aritcle)


कुछ लोग जन्म से ही छोटे कद के रह जाते हैं तो हम उनको बौना कहते हैं। कुछ लोग छोटे पद पर काम करते हैं तो हम उन्हें बौने व्यक्तित्व का स्वामी मानते हुए यह कहते हैं कि वह छोटा कर्मचारी है। किसी के पास धन अल्प होता है तो हम उसे गरीब मानते हैं, मगर हम व्यक्तित्व, विचार तथा व्यवहार के आधार पर कभी यह तय नहीं कर पाते कि कोई बौना या ऊंचा है। जनमानस की अज्ञानता का लाभ उठाते हुए आर्थिक, सामाजिक, कला तथा धार्मिक क्षेत्र के शिखरों पर कई ऐसे लोग विराजमान हो गये हैं जो विचार, व्यक्तित्व तथा व्यवहार में सामान्य की बजाय बौनापन धारण किये होते हैं। अनेक लोग ऐसे हैं जो जीवन के विषय को व्यापक मानने की बजाय पद, पैसा प्रतिष्ठा अर्जित करने ही लक्ष्य रखते हुए बौनेपन को प्राप्त हो जाते हैं।  सभी के कल्याण का नारा देकर वह अपने क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचने के बाद वह केवल अपने परिवार की प्रसन्नता के लिये कार्य करते हुए समाज में अहंकार दिखाते हैं।  हमसे दूर रहते हैं इसलिये हम उनका आंकलन नहीं कर पाते वरना वह विचार, व्यक्त्तिव और व्यवहार में अत्यंत बौने होते हैं। एक सामान्य व्यक्ति कभी भी शिखर पर पहुंचने की इच्छा न करते हुए अपने सीमित दायरे में काम करता है पर लालची तथा लोभी लोग तो  अपने लक्ष्य सर्वजनहित के लिये तय करते दिखते हैं पर मूलतः यह उनका पाखंड होता है।
आज अगर हम विश्व के साथ ही अपने समाज की बुरी स्थिति  पर दृष्टिपात करें तो यह पता चलेगा कि आजकल की समस्या यही है कि सामान्य व्यक्ति संतुष्ट होकर अपनी सीमा में रहता है जबकि विचार, व्यक्तित्व और व्यवहार की दृष्टि से बौने लोग पांखड के सहारे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि उनके पास प्रचार में विराट व्यक्तित्व दिखाने की शक्ति भी आ जाती है। सच तो यह है कि अपना बौनापन छिपाने के लिये ऐसे लोग हर क्षेत्र शिखर ढूंढते हैं ताकि समाज उनका सम्मान करे।
इसलिये हमें पद, पैसे और प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे लोगों को अपना आदर्श नहीं बनाना चाहिये।  न ही यह विश्वास करना चाहिये कि वह विचार, व्यक्तित्व तथा व्यवहार में हमसे कहीं अधिक बड़े हैं।  एक तरह से तो उन्हें सामान्य व्यक्ति की तुलना में बौना ही मानना चाहिये क्योंकि वह पाखंड नहीं करता।  न ही ऐसे लोगों से ईर्ष्या करना चाहिये क्योंकि यह लोग अपना शिखर बचाने के लिये  इतने चिंतित रहते हैं कि उनकी रातों की नींद हराम हो जाती है। इतना ही नहीं पांखड तथा प्रचार की राह पर चलते हुए उनका नैतिक चरित्र भी गिरता जाता है। हमारे यहां कहा भी जाता है कि धन गया तो समझो कुछ भी नहीं गया, अगर स्वास्थ्य गया तो समझो सब कुछ चला गया और चरित्र गया तो समझो सब कुछ चला गया।  इसलिये अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व का सौंदर्य बचाने के लिये हमेशा ही आत्म चिंत्तन करते हुए सहज येाग का मार्ग अपनाना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, March 29, 2015

मनोरोग के बढ़ते खतरे का सामना ध्यान से ही संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(manorogon ke badhte khatare ka samana dhayan se hi sambhav-hindu hindi thought article)

अभी हाल ही में जर्मनी के विमान को उसके ही मनोरोगी चालक ने जमीन पर गिरा दिया। उसमें सवार सभी यात्री काल के गाल में समा गये।  अब उसकी महिला मित्र ने बताया कि वह चालक एक मनोरोगी था और उसकी इच्छा थी कि ऐसा काम करे जिससे पूरी दुनियां उसका नाम याद रखे। उसका मनोरोग इतना विकराल था कि वह उसके निराकरण के लिये दवायें ले रहा था। उसके कुछ करने की इच्छा ने अनेक मनुष्यों को असमय ही काल के गाल में डाल दिया।
अध्यात्मिक ज्ञान की तरह से कुछ करने की इच्छा मनुष्य में स्थित अहंकार के भाव को ही परिलक्षित करती है। सामान्य मनुष्य में भी अहंकार रहता ही है। यह अलग बात है कि उसके अंदर ऐसे विषय भी रहते हैं जिससे उसमें काम, क्रोध, मोह और लोभ के भाव भी आते जाते हैं।  संसार चक्र में वह किसी एक भाव में स्थिर नहीं रहता।  जब वह किसी एक भाव में रहेगा तो मनोरोगी हो जायेगा।  वह जर्मनी का विमान चालक अगर अपनी महिला मित्र को लेकर काम और मोह के वशीभूत रहता तो शायद कुछ करने की इच्छा से-जिसका पिता अहंकार का ही भाव है-दूर हो जाता तब शायद यह दुर्घटना नहीं होती।  जिस तरह यह कहा जाता है कि शरीर में कहीं  दर्द हो और फिर एकाएक दूसरी जगह घाव हो जाये तो वहां होने वाले दर्द से पुराने की अनुभूति  नहीं रहती। यही स्थित हमारे अंदर काम, क्रोध, लोभ मोह तथा अहंकार के भाव की है।  जब एक भाव आता है तो दूसरा दूर रहता है। एकरसता नहीं रहती तो मनुष्य खतरनाक नहीं रहता।
          हमारे कथित धार्मिक विशेषज्ञ इन भावों से दूर रहने को कहते हैं पर सच यह है कि कोई भी इससे दूर नहीं रह सकता।  यह अलग बात है कि ज्ञान होने पर आदमी इन पर नियंत्रण रख सकता है।  योग साधना करने पर तो इतनी शक्ति आ जाती है कि इन भावों की लगाम ही अपने हाथ में आ जाती है। मुक्ति तब भी नहीं मिल सकती पर यह तय है कि वह योग साधक पर सवारी नहीं करते वही उन पर सवार रहता है।  सामान्य मनुष्य इन भावों में घूमता है इसलिये खतरनाक नहीं रहता पर जो मनोरोगी हो जाये वह एक ही भाव में फंसकर अपना जीवन नष्ट कर लेता है।  धार्मिक विद्वान काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार के भावों को विष कहते हैं पर सच यही है कि जीवन के संचालन में इनका ही योगदान है।  इन पर नियंत्रण का मार्ग भक्ति है इसलिये ही प्राचीन कालीन ऋषि, मुनियों और तपस्वियों ने ही अनेक प्रयोग कर तत्वज्ञान का रहस्य खोज निकाला। जो लोग तत्वाज्ञान की राह चले जाते हैं वह जीवन में बाहरी विषयों में उतनी ही सक्रियता रखते हैं  जितनी देह के लिये आवश्यक हो पर जिन पर इन भावों ने सवारी की वह उसे इधर से उधर दौड़ाते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरे विश्व में मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है।  इसके साथ ही ऐसे रोगों की संख्या बढ़ रही है जो मानसिक तनाव से पैदा होते हैं। हमारा मानना है कि मानसिक तनाव का मुख्य कारण यह है कि हम अपना ध्यान बहिर्मुखी विषयों पर ही रखते हैं।  एकांत में ध्यान, नाम स्मरण तथा आत्मचिंत्तन करने की प्रक्रिया हमारी आदत से बाहर चली गयी है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि देश में मनोरोगियों के साथ अन्य रोगियों की संख्या बढ़ रही है। अनेक लोगों को तो अपने रोगों का ज्ञान तक नहीं है। इसलिये जहां तक हो सके एकांत में ध्यान, नाम स्मरण तथा आत्मचिंत्तन करते रहना चाहिये।  इससे अपने बुद्धि तथा मन पर नियंत्रण रहता है। यही जीवन के लिये श्रेयस्कर स्थिति हो सकती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Friday, March 27, 2015

धन्य है क्रिकेट का खेल-लघु हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन(A hindi article on world cup in australia)



कुछ समझदार लोग अब इस बात से प्रसन्न है कि वह चैन से टीवी पर समाचार देख सकेंगे। कथित विश्व कप से-जिसे कुछ विशेषज्ञ अंतर्राष्ट्रीय कप ही मानते हैं- बीसीसीआई की टीम बाहर हो गयी है। इसलिये भारत के सामान्य सभ्रांत लोग रविवार को आराम से इधर उधर घूमने जा पायेंगे। समझदार मायने क्या? क्रिकेट के व्यवसाय की असलियत जानते हुए भी कभी कभी प्रचार माध्यमों के दबाव में देशभक्ति से ओतप्रोत होकर कुछ लोग मैच देखने लग ही जाते हैं।  कहा जाता है कि बंदर कितना भी बुढ़ा जाये गुलाटियां लगाना नहीं भूलता।  ऐसे ही फिक्सिंग और सट्टे के प्रभाव के समाचार टीवी चैनलों पर देखने बाद अनेक ऐसे लोग जो युवावस्था से मैचे देखते हुए चले आ रहे थे- अब तो उनके बच्चे भी युवा है-इससे विरक्त हो गये थे, पर अब कभी न कभी टीवी पर चिपक ही जाते हैं।  मालुम है कि सब कुछ पटकथा जिस तरह लिखी गयी है उसके अनुसार ही मैच होते हैं फिर भी मन है कि मानता नहीं।
          ऐसे ही हमारे एक मित्र ने जब एक टीवी चैनल पर सुना कि सट्टबाजों की पसंदीदा की टीम है तो विचलित हो गये।  हमसे इस समाचार का मतलब पूछा। हम ज्ञान साधक होने के नाते दूसरे का मन खराब नहीं करते इसलिये अपनी अनभिज्ञता जाहिर की।
          वह बोले-‘‘यार, हमने देखा है कि सट्टेबाजों की पसंदीदा टीम हारती नहीं है।’’
          हमने कहा-‘‘तब मैच मत देखना!’’
          अगले दिन वह मिले तो बोले-यार, टीवी चैनल वाले भी गजब है।  उनका इशारा जो समझ ले वही बुद्धिमान है।’’
जब बीसीसीआई के टीम ने एसीबी का पहला ही विकेट जल्द झटक लिया तो वह काम पर जाना छोड़कर घर में ही जम गये। तब वह सोच रहे थे कि संभव है कि इस बार सट्टेबाज नाकाम हो जायें पर जब दूसरा विकेट नहीं मिला और तेजी से रन बन रहे थे तो वह घर से चले गये।  बाद में कहीं दूसरी जगह बीसीसीआई की पारी देखने लगे। जब पहले विकेट की साझेदारी जोरदार चल रही थी तब वह सोच रहे थे कि आज तो सट्टेबाज फ्लाप हो रहे हैं। मगर यह क्या?  थोड़ी देर बाद ही एक के एक खिलाड़ी होते गये। जिस तरह बीसीसीआई के दूल्हे एक के बाद एक बाराती बनकर बाहर जा रहे थे उससे उनका माथा ठनका। तब यह बात उनके समझ में आयी कि अगर मामला क्रिकेट का हो तो सट्टेबाज  भारतीय ज्योतिष शास्त्र में अधिक दक्ष लगते हैं।
          बीसीसीआई की टीम ने लगातार सात मैच जीतकर जो पुराने क्रिकेट प्रेमियों में उम्मीद जगाई थी वह टूट गयी।  हम दूसरों की क्या कहें जो इन मैचों पर संदिग्ध दृष्टि रखते हैं वह भी प्रचार के झांसे आ ही जाते हैं तो उन लोगों की क्या कहें जो इसे नहीं जानते। बहरहाल हमारे मित्र इस बात पर खुश थे कि उन्हें इस भ्रम से दो दिन पहले मुक्ति मिल गयी  वरना बीसीसीआई की टीम अगर सेमीफायनल  जीत जाती तो फायनल तक बेकार वक्त खराब होता।  हमें हैरानी हुई लोग ऐसा भी सोच सकते हैं।  धन्य है कि क्रिकेट की महिमा!
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, March 21, 2015

समय पर ही हितैषी और शत्रु की पहचान संभव-रहीम संदेश के आधार पर चिंत्तन लेख(samay par hi hitaishi aur shatru ki pahchan sambhav-A Hindu hindu religion thought based on rahim sandesh)



          आमतौर से हम सभी अपने आसपास सक्रिय लोगों पर यह सोचकर यकीन करते हैं कि समय पड़ने पर वह हमारे काम आयेंगे। अनेक लोगों से इसी आशा में संपर्क रखते हुए बरसों बीत जाते हैं पर समय आने पर उनसे निराशा हाथ लगती है।  शैक्षणिक, व्यवसायिक तथा सेवा के स्थानों पर लोगों के आपसी संपर्क सहजता से बनते हैं।  साथ चाय पीने, भोजन करने अथवा घूमने जाने से संपर्क में आये व्यक्तियों के प्रति एक विश्वास जरूर बनता है।  खासतौर से आज के युग में जब लोगों को अपने परिवार और शहर से बाहर जाकर काम करने के लिये बाध्य होना पड़ता है तब उनके दिमाग में अपने इर्दगिर्द सहजता से निकट आये लोगों के प्रति सकारात्मक भाव बन ही जाता है।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन तीन प्रकार ते हित अनहित पहिचानि।
पर बस परै, परोस बस, परे मामिला जानि।।
          सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अन्य व्यक्ति, पड़ौसी और अपनी शक्ति के बाहर कार्य होने पर ही अपने हितैषी और शत्रु को पहचान लेना चाहिये।

          यह अलग बात है कि समय आने पर उन्हें यथार्थ का पता चल जाता है। अनेक बार तो यह देखा गया है कि अपने परिवार तथा शहर से बाहर निकलकर रहने वाले लोग अक्सर अन्य व्यक्तियों पर यकीन कर धोखा खा जाते हैं। खासतौर से युवा महिलाओं को अनेक बार अन्य व्यक्तियों ये प्रताड़ित होने के समाचार आते हैं।  हम आजकल अंतर्जाल पर भी यह देख रहे हैं कि अनेक लड़कियां बिना सोचे समझे केवल आकर्षक प्रोफाइल पर देखकर प्रभावित हो जाती हैं और बाद में उनके लिये घातक परिणाम निकलता है।
          इसलिये जब तक किसी के विचार, व्यवहार तथा व्यक्तित्व का प्रमाणीकरण न हो जाये तब तक उस पर विश्वास नहीं करना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, March 7, 2015

नवीन प्राचीन सामाजिक सिद्धांतों का द्वंद्व-हिन्दी चिंत्तन लेख(navin aur prachin samajik siddhanton ka yuddh-hindi thought article)



            पश्चिमी इतिहासकार राम रावण युद्ध को जब सभ्यताओं का युद्ध कहते हैं तो भारतीय धार्मिक विद्वान असहज हो जाते हैं। हम इस पर आज तक अपनी राय कायम नहीं कर पाये सिवाय इसके कि राम और रावण युद्ध दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियों का युद्ध था।  रावण अपने प्रभाव क्षेत्र में द्रव्यमय यज्ञ करने वालों की उपस्थिति स्वीकार नहीं करता था।  उसने तपस्या से वरदान प्राप्त किये थे और उसे लगता था कि भगवान की आराधना का यही मार्ग श्रेयस्कर है।  इसलिये वह अन्य पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोगों के कार्यक्रमों में बाधा डालता था।  उसी तरह महाभारत युद्ध को जमीन के लिये हुआ युद्ध माना जाता है जिसे हम धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध कहते हैं।  इस युद्ध के बारे में भी हमारी वही धारणा है जो राम रावण युद्ध के बारे में थी।  यहां हम इन युद्धों पर विचार नहीं कर रहे वरन् आज की कथित आधुनिक  सहिष्णु सभ्यता के सिद्धांतों का प्राचीन सिद्धांतों से हो रहे युद्ध की चर्चा कर रहे हैं जो निरंतर जारी है।  इसमें हथियारों के उपयोग के साथ बहस में विचार भी शस्त्र की तरह प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
            अभी बीबीसी पर दिल्ली में हुए एक बलात्कार के अभियुक्त का साक्षात्कार आया था।  इस पर महिलाओं पर की गयी टिप्पणियों पर बहस चल ही रही थी कि नागालैंड में एक बलात्कार के आरोपी को केंद्रीय जेल से निकालकर सरेराह दंडित करने का मामला आ गया।  एक तरफ दिल्ली के बलात्कारियों के अभियुक्तों का सभ्य कानूनों के तहत अभी तक सजा नहीं दिये जाने पर आधुनिक विद्वान सियापा कर रहे थे तो अब नागालैंड में अभियुक्त को जनसजा दिये जाने पर रोष जता रहे हैं।
            भारतीय अध्यात्म के पुरोधा मनु के अनुसार जो सजा बलात्कारी के लिये तय है उसका कुछ लोग  समर्थन करेंगे तो जंगली कहलायेंगे। कहा जायेगा कि आज मनुस्मृति अप्रासंगिक है। मनुस्मृति में यह तय नहीं है कि सजा कौन देगा-राज्य या जनसमूह-पर जो है उसके अनुसार बलात्कारी के लिये काफी दर्दनाक स्थिति हो सकती है।  आधुनिक सभ्यता के विद्वान उसे अमानवीय कहेंगे। इन विद्वानों के अनुसार तो पूरे विश्व में आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था का ही अनुसरण होना चाहिये  जिसमें छानबीन के बाद ही किसी को सजा मिलना चाहिये। आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था के अनुसार चाहे हजार अपराधी छूट जायें पर एक निरपराध को सजा नहीं होना चाहिये।  यह सिद्धांत ठीक है पर जिस तरह की आधुनिक व्यवस्थायें हैं उसमें न्यायालय में जांच संस्थाओं की शक्ति भी इतनी है कि वह जिस तरह आरोप प्रस्तुत करती हैं उसी के अनुसार ही निर्णय हो सकता है।  अनेक न्यायालय तो जांच एजेंसियों की कुछ अपराधों में जांच प्रक्रिया की कमजोरी पर  ही आपत्ति कर देते हैं। न्यायाधीशों के पास अपने विवेक का अधिक उपयोग करने की अधिक सुविधा नहीं है-किताबों में लिखे नियमों के आधार पर उन्हें चलना होता है।  न्यायाधीश ईमानदार और उत्साही हो तो भी उसे जांच एजेंसियों के सहयोग पर ही निर्भर होना होता है।  इन्हीं जांच एजेंसियों पर कभी कभी  अपराधियों को बचाने या कमजोर आरोप पत्र बनाने का आरोप भी लगता है।  ऐसे में न्याय में विलंब भी होता है जिससे पक्षकार परेशान होते हैं।
            जब पूरे विश्व में अपराध बढ़ रहे हैं और आधुनिक सभ्रांत व्यवस्था उनका सामना नहीं कर पा रही तो समाज में निराशा होना स्वाभाविक है।  तब प्राचीन सभ्यता के सिद्धांतों के प्रति लोगों में झुकाव हो रहा है।  यह अलग बात है कि अहिंसक चर्चा के साथ साथ कहीं हिंसा भी हो रही है।  आजकल समाज पर आधुनिक प्रचार माध्यमों का प्रभाव इतना है कि लोग उनसे संचालित हो रहे हैं।  ऐसे में जब प्रचार माध्यम कहीं निराशा का माहौल पैदा करते हैं तो उससे उपजा क्रोध भी अपना काम कहीं न कहीं दिखाता है।  हमें ठीक नहीं पता कि दीमापुर में क्या हुआ पर इतना हमने जरूर देखा कि दिल्ली के प्रकरण की चर्चा की पूरे भारत में प्रतिकिया हुई थी।  एक बलात्कारी को सजा न दिये जाने पर प्रचार माध्यमों ने जो निराशा पैदा की वह एक बलात्कार के आरोपी पर जनसजा के रूप में प्रकट हुई तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हालांकि इस घटना को मानवीय ठहराये जाने पर यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता-क्योंकि भीड़ जब आक्रोश में होती है तब यह संभव नहीं है कि वह सत्य तर्क के आधार पर किसी के अपराधी या निरपराधी होने पर विचार करे।
            वैसे तो अनेक स्थानों पर जनता के हत्थे चढ़े बलात्कार के आरोपी मौत के गाल में समा चुके हैं पर चूंकि दिल्ली का प्रकरण प्रचार माध्यमों में चल ही रहा था तब दीमापुर में बलात्कार के आरोपी की हत्या हुई है शायद इसलिये उसकी चर्चा हो रही है।  हमारा मानना है कि यह आधुनिक और प्राचीन सभ्य सैद्धांतिक परंपराओं का द्वंद्व है जो  फिलहाल किसी निष्कर्ष पर पहुंचता नहीं दिख रहा।  यह बात आधुनिक समाज शास्त्री स्वीकार नहंी करेंगे पर सत्य यही है।
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Sunday, March 1, 2015

दुष्टों की बदतमीजी सहने से कोई लाभ नहीं-भर्तृहरि नीति शतक(dushton ki badatamiji sahane se koyee labh nahin-bhartrihari neeti shatak)



            सामान्य मनुष्य की यह प्रवृत्ति रहती है कि वह उच्च पदस्थ, धनवान तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचे कथित सिद्ध पुरुषों की चाटुकारिता इस उद्देश्य से करता है कि पता नहीं कब उनमें काम पड़ जाये? जबकि शिखर पुरुषों की भी यह प्रकृत्ति है कि वह अपनी सुविधानुसार ही सामान्य लोगों को लाभ देने का अवसर प्रदान करते हैं।  वह दरियादिल नहीं होते पर समाज उनसे ऐसी अपेक्षा सदैव किये रहता है कि वह कभी न कभी दया कर सकते हैं।  माया के पुतले इन शिखर पुरुषों को अनावश्यक ही प्रतिष्ठा और सम्मान मिलता है जिस कारण हर कोई उन जैसा स्तर पाने की कामना करता है।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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फलमलशनाय स्वादु पानाय तोयं।
क्षितिरपि शयनार्थ वाससे वल्कलं च।
नवधन-मधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणामविनयमनुमन्तुं नौतसहे दुर्जनाम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-खाने के लिये पर्याप्त धन, पीने के लिये मधुर जल, सोने के लिये प्रथ्वी और पहनने के लिये वृक्षों की छाल है तो हमारी नई ताजी संपदा की मदिरा पीकर मस्त हुए दुर्जनों की बदतमीजी सहने की कोई इच्छा नहीं है।

            योगी, सन्यासी और ज्ञानी इस मायावी संसार के सत्य को जानते हैं।  इसलिये ही जितना मिले उससे संतोष कर लेते हैं।  कहा भी जाता है कि संतोष ही सबसे बड़ा धन है जबकि असंतोष के वशीभूत होकर लोग न केवल अनुचित प्रयास करते हैं वरन् अनावश्यक ही धन, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों के दरवाजे अनावश्यक नत मस्तक होते हैं।  कालांतर में असंतोष से प्रेरित होकर किये गये प्रयास उन्हें भारी निराश करते हैं। हर व्यक्ति को एक बात याद रखना चाहिये कि उच्च पद, धनवान तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे लोग  कुछ देने के लिये हाथ जरूर उठाते हैं पर वह उनकी सुविधानुसार सकाम प्रयास होता है।


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