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Saturday, October 31, 2009

भर्तृहरि दर्शन-मूर्ख का मोह हटाना संभव नहीं (murkh ka moh-bhartrihari darshan in hindi)

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः।
कदाचिदपि पर्यटंछशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविश्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर प्रयास करें तो यह संभव है कि रेत में से तेल निकल आये, मृगतृष्णा से ही मनुष्य अपने गले की प्यास शांत कर ले। यह भी संभव है कि ढूंढने से सींग वाले खरगोश मिल जायें। मगर यह संभव नहीं है कि मूर्ख व्यक्ति अगर किसी वस्तु या व्यक्ति पर मोहित हो गया है तो उसका ध्यान वहां से हटाया जा सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर किसी व्यक्ति में किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोह उत्पन्न हो जाये तो उसका ध्यान वहां से नहीं हटाया जा सकता। आशय यह है कि भौतिक पदार्थों पर मोहित होना मूर्खता का परिचायक है।
श्रीगीता के संदेश के अनुसार पूरा संसार त्रिगुणमयी माया के प्रभाव से मोहित हो रहा है। मन में यह भाव लाना कि ‘मैं कर्ता हूं’ मोह का प्रमाण है। ‘यह मेरा है’ और ‘मैं उसका हूं’ जैसे विचार मन में मौजूद मोह भाव का प्रमाण है।
अपने दैहिक कर्म से प्राप्त धन और प्रतिष्ठा को ही फल मान लेना मोह की चरम सीमा है। विचार करें कि हमें जब कहीं नौकरी या व्यवसाय से धन प्राप्त होता है उसका हम क्या करते हैं?
उस धन को हम परिवार के पालन पोषण के साथ सामाजिक दायित्वों के निर्वाह में ही व्यय करते हैं। अधिक धन है तो उसका संचय कर बैंक आदि में रख देते हैं। वहां उसका उपयोग दूसरे करते हैं। ऐसे में हमारे लिये वह फल कैसे हो सकता है।
फल है आत्मा की तृप्ति। आत्मा की तृप्ति तभी संभव है जब भक्ति, दान और परमार्थ करते हुए हम परमात्मा को इस बात का प्रमाण दें कि उसने हमारी आत्मा को जो देह प्रदान की उसका उपयोग हम उसके द्वारा निर्मित संसार के संचालन में निष्काम भाव से योगदान दे रहे हैं। हमारा पेट कोई दूसरा भर रहा है तो हम दूसरे को भी रोटी प्रदान करें न कि अपने लिये रोटी का जुगाड़ कर उसे फल मान लें।
इस मोह भाव से विरक्त होना आसान नहीं है। इस मूर्ख मन को कोई ज्ञानी भी भारी परिश्रम के बाद ही संभाल पाता है। जिसने मन जीत लिया वही होता है सच्चा योगी।
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Thursday, October 29, 2009

चाणक्य नीति-भक्ति और दान में असंतुष्ट रहना ही अच्छा (chankya niti-bhakti aur dan)

संतोषस्त्रिशु कत्र्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कत्र्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को अपनी पत्नी, भोजन और धन से ही संतोष करना चाहिये पर ज्ञानार्जन, भक्ति और दान देने के मामले में हमेशा असंतोषी रहे यही उसके लिये अच्छा है।
संतोषाऽमृत-तुप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलूब्धानामितश्चयेतश्च धावताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य संतोष रूप अमृत से तुप्त है उसका ही हृदय शांत रह सकता है। इसके विपरीत जो मनुष्य असंतोष को प्राप्त होता है उसे जीवन भर भटकना ही पड़ता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के संदेशों के ठीक विपरीत हमारा देश चल रहा है। जिन लोगों के पास धन है उनके पास भी संतोष नहीं है और जिनके पास नहीं है उनसे तो आशा करना ही व्यर्थ है। अपनी पत्नी और घर के भोजन से धनी लोगों को संतोष नहीं है। जीभ का स्वाद बदलने के लिये ऐसी वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है। कहा जाता है कि खाने पीने की वस्तुओं को स्वच्छता होना चाहिये पर होटलों और बाजार की वस्तुओं में कितनी स्वच्छता है यह हम देख सकते हैं। किसी रात एक साफ रुमाल घर में रख दीजिये और सुबह देखिये तो उस पर धूल जमा है तब बाजार में कई दिनों से रखी चीजों में स्वच्छता की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है। घर में गृहिणी सफाई से भोजन बनाती है पर क्या वैसी अपेक्षा होटलों के भोजन में की जा सकती है। ढेर सारे ट्रक, ट्रेक्टर,बसें, मोटर साइकिलें तथा अन्य वाहन सड़कों से गुजरते हुए तमाम तरह की धूल और धूंआ उड़ाते हुए जाते हैं उनसे सड़कों पर स्थित दुकानों,चायखानों और होटलों में रखी वस्तुओं के विषाक्त होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे में बाजारों में खाने वाले लोगों के साथ अस्पतालों में मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात क्या है?
इसके विपरीत लोगों की आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति के भाव के प्रति कमी भी आ रही है। लोगों को ऐसा लगता है कि यह तो पुरातनपंथी विचार है। असंतोष को बाजार उकसा रहा है क्योंकि वहां उसे अपने उत्पाद बेचने हैं। प्रचार के द्वारा बैचेनी और असंतोष फैलाने वाले तत्वों की पहचान करना जरूरी है और यह तभी संभव है कि जब अपने पास आध्यात्मिक ज्ञान हो। आध्यामिक ज्ञान से ही जीवन का अर्थ समझकर इस संसार के सभी कार्य अच्छी तरह किये जा सकते हैं।
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Monday, October 26, 2009

विदुर नीति-पवित्र नीति से लड़ने वाला वीर (pavitra niti vala vir-hindu adhyatmik sandesh

अपनीतं सुनीतेन योऽयं प्रत्यानिनीषते।
मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो अन्याय के कारण नष्ट हुए धन को अपनी स्थिर बुद्धि का आश्रय लेकर पवित्र नीति से वापस प्राप्त करने का संकल्प लेता है वह वीरता का आचरण करता है।
मार्दव सर्वभूतनामसूया क्षमा धृतिः।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणा चाभिमानना।।
हिंदी में भावार्थ-
संपूर्ण जीवों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना जैसे गुण मनुष्य की आयु में वृद्धि करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के स्वयं के अंदर ही गुण दोष होते हैं। उनको पहचानने की आवश्यकता है। दूसरे लोगों के दोष देखकर उनके प्रति कठोरता का भाव धारण करना स्वयं के लिये घातक है। जब किसी के प्रति क्रोध आता है तब हम अपने शरीर का खून ही जलाते हैं। अवसर आने पर हम अपने मित्रों का भी अपमान कर डालते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में कठोरता या क्रोध के भाव लाकर मनुष्य अपनी ही आयु का क्षरण करता है।
कोमलता का भाव न केवल मनुष्य के प्रति वरन् पशु पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति रखना चाहिए। कभी भी अपने सुख के लिये किसी जीव का वध नहीं करना चाहिये। आपने सुना होगा कि पहले राजा लोग शिकार करते थे पर अब उनका क्या हुआ? केवल भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में ही राजशाही खत्म हो गयी क्योंकि वह लोगा पशुओं के शिकार का अपना शौक पूरा करते थे। यह उन निर्दोष और बेजुबान जानवरों का ही श्राप था जो उनकी आने वाली पीढ़ियां शासन नहीं कर सकी।
हम जब अपनी मुट्ठियां भींचते हैं तब पता नहीं लगता कि कितना खून जला रहे हैं। यह मानकर चलिये कि इस संसार में सभी ज्ञानी नहीं है बल्कि अज्ञानियेां के समूह में रह रहे हैं। लोग चाहे जो बक देते हैं। अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये न केवल उलूल जुलूल हरकतें करते हैं बल्कि घटिया व्यवहार भी करते हैं ताकि उनको देखने वाले श्रेष्ठ समझें। ऐसे लोग दिमाग से सोचकर बोलने की बजाय केवल जुबान से बोलते हैं। उनकी परवाह न कर उन्हें क्षमा करें ताकि उनको अधिक क्रोध आये या वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं जलें। अपनी आयु का क्षय करने से अच्छा है कि हम अपने अंदर ही क्षमा और कोमलता का भाव रखें। दूसरे ने क्या किया और कहा उस कान न दें।
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Sunday, October 25, 2009

संत कबीर के दोहे-हरि भजन से भी कई लोगों के दिल का कपट नहीं जाता (hari bhajan aur kakap-kabir sandesh)


पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

                       संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।

हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय

                    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।
                        वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
               जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये। आधनिक शिक्षा के साथ अगर अपना अध्यात्मिक ज्ञान भी रहे तो जीवन में अधिक आनंद आता है।
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Saturday, October 24, 2009

विदुर नीति-मिथ्या कार्यों में मन लगाना ठीक नहीं (mithyy karya n karen-vidur niti)

तथैव योगविहितं यत्तु कर्म नि सिध्यति।
उपाययुक्तं मेधावी न तव्र गलपयेन्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
अच्छे और सात्विक प्रयास करने पर कोई सत्कर्म सिद्ध नहीं भी होता है तो भी बुद्धिमान पुरुष को अपने अंदर ग्लानि नहीं अनुभव करना चाहिए।

मिथ्यापेतानि कर्माण सिध्येवुर्यानि भारत।
अनुपायवुक्तानि मा स्म तेष मनः कृथाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मिथ्या उपाय से कपट पूर्ण कार्य सिद्ध हो जाते हैं पर उनमें मन लगाना ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर आपने सुना होगा कि प्यार और जंग में सब जायज है-यह पश्चिम से आयातित विचार है। जीवन की तो यह वास्तविकता है कि जैसा कर्म करोगे वैसा परिणाम सामने आयेगा। जैसा मन में संकल्प होगा वैसे ही यह संसार हमारे साथ व्यवहार करेगा। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में मनुष्य इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने कर्म की शुद्धता और अशुद्धता का बोध नहीं रहता। इसी कारण वह ऐसे उपायों का भी सहारा लेता है जो अपवित्र और अनैतिक हैं। फिर उसको अपनी बात के प्रमाण रखने के लिये अनेक प्रकार के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। इस तरह वह हमेशा पाप की दुनियां में घूमता है। मगर मन तो मन है वह उसकी तृप्ति के लिये भक्ति और साधना का ढोंग भी करता है। इससे प्रकार वह एक ऐसे मायाजाल में फंसा रहता है जिससे जीवन भर उसकी मुक्ति नहीं होती।
इसलिये अपने जीवन में अच्छे संकल्प धारण करने के साथ ही अपने कार्य की सिद्ध के लिये पवित्र और नैतिक उपायों की ही सहायता लेना चाहिए।

बाकी लोग किस रास्ते पर जा रहे हैं यह विचार करने की बजाय यह देखना चाहिए कि हमारे लिये उचित मार्ग कौनसा है। इसके अलावा यह भी एक अन्य बात यह भी है कि अगर हमारा कोई पवित्र और सात्विक कर्म अपने उचित उपाय से सिद्ध नहीं होता तो भी परवाह नहीं करना चाहिए। याद रखें कार्य सिद्ध होने का भी अपना एक समय होता है और जब आता है तो हमें यह भी पता नहीं लगता कि वह काम कैसे पूरा हुआ। इसलिए कोई भी शुभ काम मन लगाकर करना चाहिए। बहुत जल्दी सफलता के लिए ग़लत मार्ग नहीं पकड़ना चाहिए।
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Thursday, October 22, 2009

कबीरदास साहित्य-सूर्य के उगते ही चाँद छिप जाता है (surya aur chaandrama-kabirdas sahitya)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।


आसमान में तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
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Wednesday, October 21, 2009

रहीम सन्देश-विपत्ति में अपने लोगों की सहानुभूति मिल जाए तो अच्छा (vipati aur apne-rahim ke dohe)

दुरनि परे रहीम कहिए भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होन हित हानि

कविवर रहीम कहते है कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में अपने मित्रों और रिश्तदारों से सहानुभूति मिल जाये तो अच्छा लगता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में जब तक किसी के पास धन है लोगों का जमावड़ा उसके आसपास रहता है और जैसे ही उसके बुरे दिन आये तो सब मूंह फेर जाते हैं। कोई भी मित्र या रिश्तेदार आर्थिक दृष्टि के परेशान किसी भी आदमी के पास फटकने को तैयार नहीं होता। ऐसे में अगर कोई रिश्तेदार या मित्र थोड़ी ही सहानुभूति जताए तो मानसिक रूप के सुख मिलता है पर आजकल वह संभव नहीं हैं। क्योंकि जब पेसा होता है तो आदमी अपना अहंकार दिखाता है और लोग उससे नाराज हो जाते हैं और इसलिये बाद में उससे दूरी बना लेते हैं।

जो लोग संपन्नता और सुख के समय विनम्र रहते हैं उनको इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। इसके साथ ही अगर अपने पास अगर धन,वैभव या कोई बड़ी उपलब्धि हो और लोग हमारा सम्मान करते हों तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह हमारे निजी गुणों की वजह से है।

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Monday, October 19, 2009

मनु स्मृति-मन पर काबू करने से लक्ष्य प्राप्ति संभव (hindi adhyatm sandesh-manu smriti)

नीति विशारद मनु कहते हैं कि
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वशे कृत्वेन्दिियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्वान्संसाधयेर्थानिक्षण्वन् योगतस्तनुम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखे जिससे धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष चारों प्रकार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
न तथैंतानि शक्यन्ते सन्नियंतुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः

हिन्दी में भावार्थ-जब तक इंद्रियों और विषयों के बारे में जानकारी नहीं है तब तब उन पर निंयत्रण नहीं किया जा सका। इंद्रियों पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये यह आवश्यक है कि विषयों की हानियों और दोषों पर विचार किया जाये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण और विषयों से परे रहने का संदेश देना आसान है पर स्वयं उस पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। आप चाहें तो पूरे देश में ऐसे धार्मिक मठाधीशों को देख सकते हैं जो श्रीगीता का ज्ञान देते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं पर वही अपने प्रवचन कार्यक्रमों के लिये धार्मिक लोगों से सौदेबाजी करते हैं। लोगों को सादगी का उपदेश देने वाले ऐसे धर्म विशेषज्ञ अपने फाइव स्टार आश्रमों से बाहर निकलते हैं तो वहां भी ऐसी ही सुविधायें मांगते हैं। देह को नष्ट और आत्मा को अमर बताने वाले ऐसे लोग स्वयं ही नहीं जानते कि इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए विषयों से परे कैसे रहा जाता है। उनके लिये धार्मिक संदेश नारों की तरह होते हैं जिसे वह लगाये जाते हैं।
दरअसल ऐसे लोगों से शास्त्रों से अपने स्वार्थ के अनुसार संदेश रट लिये हैं पर वह इंद्रियों और विषयों के मूलतत्वों को नहीं जानते। इंद्रियों पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब विषयों से परे रहा जाये। यह तभी संभव है जब उसके दोषों को समझा जाये। वरना तो दूसरा कहता जाये और हम सुनते जायें। ढाक के तीन पात। सत्संग सुनने के बाद घूम फिरकर इस साँससिक दुनियां में आकर फिर अज्ञानी होकर जीवन व्यतीत करें तो उससे क्या लाभ? कहने  का तात्पर्य यह है कि ज्ञान का श्रवण या अध्ययन करने के साथ उस पर चिंतन और मनन भी करना चाहिए। किसी किताब में पढा या किसी के मुख से सूना शब्द तभी ज्ञान बनता है जब उस पर अपनी बुद्धि चलायी जाए।
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Thursday, October 15, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-भक्ति कभी व्यापार की तरह न करें (bhakti aur vyapar-bhartrihari shatak in hindi)

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।


                     हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लिए  कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।
                    वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।
                       वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हैं। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।
                           यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये। भक्त  करते समय इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि कोई स्वर्ग का टिकट आरक्षित करवा रहे है।
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Wednesday, October 14, 2009

संत कबीरदास के दोहे-अपनी तारीफ, दूसरे की निंदा न करें (apni tarif khub n karen-kabir ke dohe)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त।
अपना याद आवई, जाका आदि न अन्त।।

दूसरों के दोष देखकर सभी हंसते हैं पर उनको अपनी देह के स्थाई दोष न तो याद आते हैं न दिखाई देते हैं जिनका कभी अंत ही नहीं है।
आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मूंह से आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा करना मानवीय स्वभाव है। अपने में कोई गुण न हो पर उसे प्रचारित करना और दूसरे के गुण की जगह उसके दुर्गुण की चर्चा करने में सभी को आनंद आता है पर किसी को अपने दोष नहीं दिखते। जितनी संख्या में लोग परमार्थ करने वाले नहीं है उससे अधिक तो उसका दावा करने वाले मिल जायेंगे। हम अपनी देह में अपने उपरी अंग ही देखते हैं पर नीचे के अंग नहीं दिखाई देते जो गंदगी से भरे रहते हैं चाणक्य महाराज के अनुसार उनको कभी पूरी तरह साफ भी नहीं रखा जा सकता। तात्पर्य यह है कि हम अपने दैहिक और मानसिक दुर्गंण भूल जाते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि अपने बारे में अधिक दावे मत करो अगर किसी ने उनका प्रमाण ढूंढना चाहा तो पूरी पोल खुल जायेगी।
उसी तरह दूसरे की निंदा करने की बजाय अपने गुणों की सहायता से भले काम करने का प्रयास करें यही अच्छा रहेगा। आत्मप्रवंचना कभी विकास नहीं करती और परनिंदा कभी पुरस्कार नहीं दिलाती। यह हमेशा याद रखना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com

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Sunday, October 11, 2009

मनु स्मृति-परमात्मा का नाम जपना भी एक तरह से यज्ञ (nam jap yagya-adhyatmik sandesh)

मनु महाराज कहते हैं कि
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इंद्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु।
संयमे यलमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
एक विद्वान अपने मन और इंद्रियों पर वैसे ही लगाम से नियंत्रण करता है जैसे कि कोई कुशल सारथी अपने घोड़ों पर करता है।
जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः।
कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
हिंदी में भावार्थ-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जाप यज्ञ से ही किसी को भी लाभ हो सकता है। परमात्मा का नाम जाप करने वाला अगर कोई अन्य यज्ञ नहीं करे तो भी उसे सिद्धि मिल जाती है और उसे समाज में भी सम्मान प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुमहाराज ने भी समाज में कर्मकांडों को महत्व को नकारते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि अगर कोई मनुष्य हृदय से भगवान का जाप करे तो उसे पूरी तरह भक्ति का लाभ होगा। मनुमहाराज को भारतीय समाज का पथप्रदर्शक कहा जाता है। आलोचक तो उन पर समाज में अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाते हैं जबकि उनका यह स्पष्ट मत है कि अगर मनुष्य भगवान का नाम हृदय से जाप करे तो उसे कोई अन्य यज्ञ या हवन करने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि मनुमहाराज के प्रशंसक होने का दावा करने वाले अन्य प्रकार के कर्मकांडों पर ही अधिक जोर देते हैं और हृदय से जाप करने की बजाय न बल्कि स्वयं बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते हैं-कहीं कहीं तो बाध्य भी करते हैं।
उसी तरह मनु महाराज यह भी कहते हैं कि विद्वान वही है जो अपनी इंद्रियों पर अपना शासन करता है न कि उनसे शासित होता है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में शिक्षा का विस्तार होने के साथ ही लोगों में व्यसनों की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। शराब पीना तथा अनैतिक संबंध स्थापित करना शिक्षित लोगों के लिये एक फैशन बन गया है। असंयमित जीवन जीने वाले अधिकतर वही लोग हैं जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और अपने आपको विद्वान कहने में उनको गौरव की अनुभूति होती है। सबसे अधिक लालच, लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति का शिकार पढ़ा लिखा तबका ही हुआ है। मनुमहाराज के संदेश के अनुसार तो वह साक्षर और शिक्षित हैं पर विद्वान नहीं है। विद्वान तो उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो अपनी इंद्रियों पर संयम रखता हो।
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Tuesday, October 6, 2009

रहीम दर्शन-ज्ञानी की पहचान उसके गुणों से हो जाती है (gyani ki pahachan-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते हैं कि
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उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय


ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
याद रखें योग्य गुरू जहाँ जीवन की नैया पार लगाता हैं अयोग्य दोबो भी देता है।
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Monday, October 5, 2009

चाणक्य नीति-आँख से देखकर ज़मीन पर पाँव रखें (chankya darshan-hindi sandesh)

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेद यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुष।।
हिंदी में भावार्थ-
धन से रहित व्यक्ति को
दीन हीन नहीं समझना चाहिये अगर वह विद्या ये युक्त है। जिस व्यक्ति के पास धन और अन्य वस्तुयें हैं पर अगर उसके पास विद्या नहीं है तो वह वास्तव में दीन हीन है।
दुष्टिपतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेजलम्।
शास्त्रपूतं वदेद् मनः पूतं समाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
आंखों से देखकर जमीन पर पांव रखें। कपड़े से छान कर पानी पियो। शास्त्र से शुद्ध कर वाक्य बोलें और कोई भी पवित्र काम मन लगाकर संपन्न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में निर्धन आदमी को अयोग्य मान लेने की प्रवृत्ति है और यही कारण है कि उसमें वैमनस्य फैल रहा है। एक तरफ धनी मानी लोग यह अपेक्षा करते हैं कि कोई उनकी रक्षा करे दूसरी तरफ अपनी रक्षा के लिये शारीरिक सामथ्र्य रखने वाले निर्धन व्यक्ति का सम्मान करना उनका अपने धन का अपमान लगता है। संस्कार, संस्कृति और धर्म बचाने के लिये आर्तनाद करने वाले धनी लोग अपने देश के निर्धन लोगों का सम्मान नहीं करते और न ही उनके साथ समान व्यवहार उनको पसंद आता है। धनीमानी और बाहूबली लोग देश पर शासन तो करते हैं पर उसे हर पल प्रमाणिक करने के उनके शौक ने उनको निर्धन समाज की दृष्टि में घृणित बना दिया है।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि युद्ध में कोई धनीमानी नहीं बल्कि गरीब परिवारों के बच्चे जाते हैं। अमीर तो उनकी बहादुरी और त्याग के वजह से सुरक्षित रहते हैं पर फिर भी उनके लिये गरीब और उसकी गरीबी समाज के लिये अभिशाप है। गरीब की गरीबी की बजाय उसे ही मिटा डालने के लिये उनकी प्रतिबद्धता ने निचले तबके का शत्रु बना दिया है। यह देश दो हजार वर्ष तक गुलाम रहा तो केवल इसलिये कि समाज के धनी और बाहूबली वर्ग ने अपना दायित्व नहीं निभाया।

आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिये। कहीं भी जमीन पर पांव रखना हो तो उससे पहले अपनी आंखों की दृष्टि रखना चाहिये। आजकल जिस तरह सड़क पर हादसों की संख्या बढ़ रही है उससे तो यही लगता है कि लोग आंखों से कम अनुमान से अधिक चलते हैं। अधिकतर बीमारियां पानी के अशुद्ध होने से फैलती हैं और जितना स्वच्छ पानी का उपयोग किया जाये उतना ही बीमार पड़ने का खतरा कम हो जाता है। इसके अलावा निरर्थक चर्चाओं से अच्छा है आदमी धार्मिक ग्रंथों और सत्साहित्य की चर्चा करे ताकि मन में पवित्रता रहे। मन के पवित्र होने से अनेक काम स्वत: ही सिद्ध होते हैं।
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Saturday, October 3, 2009

मनुस्मृति-नाचना गाना ठीक नहीं (music and dance in nod good-manu smriti)

न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।

न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए। इस सन्देश के पीछे मनु महाराज का यह भी भाव रहा है कि नाचने गाने में व्यस्त होने से मनुष्य का मन उसके वश में नहीं रहता इसलिए उस पर कोई भी नियंत्रण कर सकता है। इधर हम भी देख रहे हैं कि मनोरंजन के नाम पर समाज की बुद्धि को एक तरह से अपहृत कर लिया गया है. तब इस सन्देश की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
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Friday, October 2, 2009

चाणक्य दर्शन-बुद्धिमान पर विजय पाना कठिन (hindu adhyatmik sandesh)

   नीति विशारद चाणक्य कहते हैं  कि 
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प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञः धुतिमंत च कष्टमाहुररि बुधाः।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान, कुलीन, शूरवीर, चतुर, धर्मात्मा, धैर्यवान, तथा कृतज्ञ व्यक्ति पर विजय पाना कठिन है। ऐसे व्यक्ति से संधि कर लेना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अनेक अवसर पर क्रोध अथवा विवाद के कारण आदमी अपनी बुद्धि पर नियंत्रण खो बैठता है और यही उसके लिये आपत्ति का कारण बनता है। क्रोध या निराशा की स्थिति क्षणिक और जीवन बहुत लंबा होता है। इसलिये अवसाद के क्षणों में भी बुद्धिमान, वीर, चतुर, धर्मात्मा तथा धैर्य धारण करने वाले व्यक्ति से विवाद मोल नहीं लेना चाहिये। जीवन में पता नहीं कम किस के सहयोग की आवश्यकता पड़ जाये। क्रोध और निराशा के क्षणिक आवेग में सुयोग्य व्यक्ति से बैर लेना भविष्य में उससे मिलने वाले सहयोग की अपेक्षाओं को समाप्त करना है। जब कोई आपत्ति आती है तब उससे निपटने के लिये योजनाबद्ध तरीके से निपटने के लिये कार्यक्रम बनाना, साधन जुटाना तथा नियत समय पर कार्यवाही करने के लिये जिस बौद्धिक चातुर्य की आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति के लिये सुयोग्य व्यक्तियों का साथ होना जरूरी है। ऐसे लोगों के साथ हमेशा अच्छा व्यवहार रखना चाहिये।
अनेक लोगों को यह भ्रम होता है कि धनी, प्रतिष्ठित तथा बाहूबली लोगों के साथ मित्रता होने से ही सारे संकट दूर हो जायेंगे तो यह उनका भ्रम है। कुछ लोग तो ऐसे लोगों की संगत में शांतिप्रिय, धैयैवान तथा बुद्धिमान लोगों से बैर भी लेते हैं पर जब विपत्ति आती है तो उन्हें ऐसे ही लोगों की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि जीवन में अपने मित्र और सहयोगियों के संग्रह करते समय इस बात को अवश्य देखना चाहिये कि वह न केवल सुयोग्य हों बल्कि समय आपने पर मददगार भी हों। इसके लिये उनके साथ हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध रखें। यह
 एक अच्छा उपाय है।
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Thursday, October 1, 2009

मनु स्मृति-झूठी गवाही देना पाप है (manu smruti in hindi)

यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैध हृदिस्थितः।
तेन चेदविवादस्ते मां गंगा मा कृरून गमः।।
हिंदी में भावार्थ-
सभी के हृदय में भगवान विवस्वान यम साक्षी रूप में स्थित रहते हैं। यदि उनसे कोई विवाद नहीं करना है तथा पश्चाताप के लिये गंगा या कुरुक्षेत्र में नहीं जाना तो कभी झूठ का आश्रय न लें।

एकोऽहमस्मीत्यातमानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि कोई आदमी यह सोचकर झूठी गवाही दे रहा है कि वह अकेला है और सच्चाई कोई नहीं जानता तो वह भूल करता है क्योंकि पाप पुण्य का हिसाब रखने वाला ईश्वर सभी के हृदय में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलना अज्ञानी और पापी मनुष्य का लक्षण है। सभी का पेट भरने वाला परमात्मा है पर लालची, लोभी, कामी और दुष्ट प्रवृत्ति के लोग झूठ बोलकर अपना काम सिद्ध करना अपनी उपलब्धि मानते हैं। अनेक लोग झूठी गवाही देते हैं या फिर किसी के पक्ष में पैसा लेकर उसका झूठा प्रचार करते हैं। अनेक कथित ज्ञानी तो कहते हैं कि सच बोलने से आज किसी का काम नहीं चल सकता। यह केवल एक भ्रम है।
यह दुनियां वैसी ही होती है जैसी हमारी नीयत है। अगर हम यह मानकर चल रहे हैं कि झूठ बोलने से अब काम नहीं चलता तो यह अधर्म की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम है। कई लोग ऐसे है जो अपनी झूठी बेबसी या समस्या बताकर दूसरे से दान और सहायता मांगते हैं और उनको मिल भी जाती है। अब यह सोच सकते हैं कि झूठ बोलने से कमाई कर ली पर उनको यह विचार भी करना चाहिये कि दान या सहायता देने वाले ने अपनी धार्मिक प्रवृत्ति के कारण ही अपना कर्तव्य निभाया। इसका आशय यह है कि धर्म का अस्तित्व आज भी उदार मनुष्यों में है। इसे यह भी कहना चाहिये कि यह उदारता ही धर्म के अस्तित्व का प्रमाण है। इसलिये झूठ बोलने से काम चलाने का तर्क अपने आप में बेमानी हो जाता है क्योंकि अंततः झूठ बोलना धर्म विरोधी है।
आदमी अनेक बार झूठ बोलता है पर उसका मन उस समय कोसता है। भले ही आदमी सोचता है कि झूठ बोलते हुए कोई उसे देख नहीं रहा पर सच तो यह है कि परमात्मा सभी के हृदय में स्थित है जो यह सब देखता है। एक मजेदार बात यह है कि आजकल झूठ बोलने वाली मशीन की चर्चा होती है। आखिर वह झूठ कैसे पकड़ती है। होता यह है कि जब आदमी झूठ बोलता है तब उसके दिमाग की अनेक नसें सामान्य व्यवहार नहीं करती और वह पकड़ा जाता है। यही मशीन इस बात का प्रमाण है कि कोई ईश्वर हमारे अंदर है जो हमें उस समय इस कृत्य से रोक रहा होता है।
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