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Monday, August 31, 2009

रहीम दर्शन-अहंकारी को जागृत करना व्यर्थ (ahankar aur jagran-rahim ke dohe)

कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

कविवर रहीम कहते हैं कि कि स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।
अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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Sunday, August 30, 2009

संत कबीर वाणी-डरपोक आदमी पीछे से वार करता है (sant kabir vani- Timid man is stabbed from behind)

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।
असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।
हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।
कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Saturday, August 29, 2009

मनु स्मृति-जीव हत्या से मांस प्राप्त किया जा सकता है, स्वर्ग नहीं ( Manu Smriti - killing organisms can be obtained from meat, not heaven )

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।

हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।
यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।

हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है वह अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य और परमार्थ और दूसरा असत्य और हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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Thursday, August 27, 2009

चाणक्य नीति-बुरे विचारों वाली से अच्छा है कोई स्त्री साथ ही न हो

नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि
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वरं न राज्यं कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदारा।।

हिन्दी में भावार्थ-अयोग्य राजा के राज्य में रहने से अच्छा है राज्यविहीन राज्य में रहना। दुर्जन मित्र से अच्छा है कोई मित्र ही न हो। मूर्ख शिष्य से किसी शिष्य का न होना ही अच्छा है। बुरे विचारों से वाली नारी से अच्छा है साथ में कोई नारी ही न हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-व्यक्ति को अपने जीवन में संगत न मिले पर उसे कुसंग नहीं करना चाहिये। कहते हैं कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। जिस तरह की संगत वाले लोग होते हैं वैसे ही वह व्यवहार करते हैं। उनकी वाणी और दृष्टि की अपवित्रता का प्रभाव स्वाभविक रूप से उनकी संगत करने वाले पर होता है। अक्षम, अयोग्य, और बकवाद करने वाला संगी साथी हो तो वह अपने दुष्प्रभाव से जीवन को नरक बना देता है।
मित्रता करने के विषय में लोग अत्यंत लापरवाह होते हैं। कहते हैं कि ‘दुष्ट और नकारा मित्र हो तो हमें क्या फर्क पड़ता है।’ यह सोचना स्वयं को ही धोखा देना है। जिन लोगों के साथ हम रहते हैं उनकी छबि अगर खराब है तो निश्चित रूप से हमारी भी खराब होगी। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि उनके साथ रहने पर उनके ही किये अपराध में हमारा सहयोग होने का संदेह लोगों को होता है। ऐसी अनेक घटनायें हो चुकी हैं जिसमें कपटी, दुष्ट और अपराधी मित्र का दुष्परिणाम उनके मित्रों को ही भोगना पड़ता है।
जिस तरह आजकल छल कपट की प्रवृत्ति बढ़ रही है उसके देखते हुए तो और अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है मगर इसके विपरीत लोग चाहे जिसे अपना मित्र बनाकर अपने लिये संकट का आमंत्रण देते हैं।
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adhyatm chankya niti,dharm,hindi sahitya,अध्यात्म,धर्म,संदेश,हिन्दी साहित्य,हिन्दू

कवीर के दोहे-दुनिया की चालाकियां तो को तो कोई भी सीख लेता है

पढ़ी गुनी पाठक भये, समुझाया संसार
आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार

स्वयं शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने शिष्यों को भी ज्ञान देने लगे पर जिन लोगों ने अपने आपको नहंी समझा उनका जीवन तो व्यर्थ ही गया।
लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव

संत कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में अपनी जीविका चलाने की शिक्षा तो हर कोई प्राप्त करता है। यह चतुराई तो हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से आती है। जिससे पढ़ने से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होता है वह कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।
वर्तमान संदर्भ संपादकीय व्याख्या-अक्सर अनेक लोग शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि उनके बच्चे उनसे परे हो गये हैं या उनकी देखभाल नहीं करते। इसके दो कारण होते हैं एक तो यह कि नये सामाजिक परिवेश से तालमेल न बिठा पाने के कारण लोग अपने माता पिता को त्याग देते हैं या फिर वह व्यवसाय के सिलसिले में उनसे दूर हो जाते है। दोनो ही स्थितियों का विश्लेषण करें तो यह अनुभव होगा कि सभी माता पिता अपने बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस मायावी दुनियां में उच्च पद प्राप्त कर, अधिक धनार्जन कर, और प्रतिष्ठा की दुनियां में चमककर उनका नाम रोशन करें। लोग बच्चों की कामयाबी के सपने देखते हैं और केवल सांसरिक शिक्षा तक ही अपने बच्चों को सीमित रखते हैं। किसी तरह अपना पेट पालो यही सिखाते हुए वह ऐसा अनुभव करते हैं कि जैसे कि वह दुनियां का कोई विशेष ज्ञान दे रहे हैं। यह तो एक सामान्य चतुराई है जिसे सब जानते हैं।
यह उनका एक भ्रम है। यह शिक्षा तो सभी स्वतः ही प्राप्त करते हैं पर जिन बच्चों को उनके माता पिता इसके साथ ही अध्यात्म ज्ञान, ईश्वर भक्ति और परोपकार करना सिखाते हैं वह अधिक योग्य निकलते हैं। जब तक आदमी मन में अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब वह न तो स्वयं कभी प्रसन्न रह पाता है और न ही दूसरों को प्रसन्न करता है।
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Wednesday, August 26, 2009

संत कबीर वाणी-मूर्ख आदमी सत्य शब्द नहीं जानता (sant kabir vani-masnushya aur satya)

मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वारा

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति सत्य शब्द नहीं मानता न ही धर्म आदि का विचार करता। वह बिना सत्संग और भगवान भक्त के बिना ही मृत्यू को प्राप्त होता है।
आंखि न देखि बावरा,शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहूं निपट अजान

संत शिरोमिणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग अपनी देह की अवस्था का विचार नहीं करते। इन बावलों को आंख से दिखते नहीं है और कानों से उपदेश और संतों के प्रवचन सुनाई नहीं देते है। सिर के बाल पूरी तरह सफेद हो और तब भी अज्ञानी हैं।
संक्षिप्त व्याख्या-इस देश में इतने सारे कथित संत और उनके शिष्य हैं और इतने सारे धार्मिक अनुष्ठान होते हैं पर फिर भी समाज निरंतर संस्कृति, संस्कार और साहित्य के क्षेत्र में पतन की तरफ जा रहा है। लोग अपने संस्कारों को निरर्थक, संस्कृति को पिछड़ा और धार्मिक साहित्य को अप्रासंगिक मानने लगे हैं। इसका कारण यह है कि हमारे देश में पाखंड बहुत बढ़ चुका है। लोग ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाते हैं पर आखें होते हुए भी देखते नहीं, कान से सुनी बात दूसरे कान से निकाल देते हैं और बुद्धि का उपयोग करना तो उनको निरर्थक समय नष्ट करना होता है। वैसे वह फिल्मी और राजनीतिक विषयों पर बातचीत कर अपने आपको विद्वान और ज्ञानी समझते हैं पर सत्संग की बात करो तो कहते हैं-‘इनसे कोई संसार थोड़े ही चलता है।’

आधुनिक शिक्षा से भारतीय अध्यात्म विषय को दूर रखने की वजह से आजकल लोगों में मानसिक विकृतियां जन्म ले चुकी हैं। ऐसे में वही लोग थोड़ा बहुत ज्ञान धारण किये हुए हैं जिनको माता पिता या किसी योग्य गुरू द्वारा उससे परिचित कराया गया है वरन लोग तो मन की आखों से दृष्टिहीन, कान से बहरे और बुद्धि से विवेकहीन हो गये हैं। उनको केवल सांसरिक विषय ही प्रिय लगते हैं।
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Tuesday, August 25, 2009

मनु संदेश-आयु में छोटा होने पर भी ज्ञानी सम्मानीय (manu smruti in hindi-gyan aur ayu)

उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य चेह च शाश्वतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जन्म और शिक्षा देने वाले दोनों ही पिता होते हैं पर पर विद्या और ज्ञान देने से मनुष्य लोक तथा परलोक दोनों ही सुधारता है इसलिये उसका ही महत्व अधिक है। अतः ज्ञान देने वाले का ही अधिक महत्व है।
अध्यापयामास पितृन् शिशुरङिगरस कविः
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्म तान्।।
हिंदी में भावार्थ-
अङिगरस ऋषि ने अपने बुजुर्गों को अध्ययन कराते हुए ‘हे पुत्रों’ कहकर ज्ञान दिया था। इस तरह अपने से छोटा होने पर भी ज्ञान देने वाला गुरु कहलाता है।
संपादकीय व्याख्या -भारतीय अध्यात्म में माता पिता तथा गुरु को परम आदरणीय माना जाता है पर जीवन और व्यवहार का ज्ञान देने वाले गुरु का विशेष स्थान होता है। माता पिता तो अपने पुत्र को परिवार तथा व्यवसायों की परंपराओं से अवगत स्वाभाविक रूप से कराते हैं क्योंकि वह देह के निकट होते हैं पर गुरु तो निष्काम भाव से अपने शिष्यों को जीवन और अध्यात्म का ज्ञान देते हैं जो कि न केवल इस लोक में बल्कि परलोक में भी सहायक होता है। गुरु का अपने शिष्य से कोई दैहिक संबंध नहीं होता इसलिये उसकी शिक्षा का अधिक महत्व है।
अङिगरस ऋषि ने भी अपने पिता, चाचा और ताउओं को ब्रह्मज्ञान दिया और उस समय उनको ‘हे पुत्रों’ कहकर संबोधित किया था। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान देने वाला अपने से छोटी आयु का भी क्यों न हो उसका गुरु की तरह सम्मान करना चाहिये। उसी तरह अपने से बड़े को ज्ञान देते समय भी उसे अपना शिष्य समझना चाहिये। यही कारण है कि हमारे संत और ऋषि गुरु महिमा का बखान करते हैं।
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Saturday, August 22, 2009

संत कबीर वाणी-मूर्ख की मित्रता से खीर मिले तो भी बुरी (sant kabir vani-khir aur dosti)

संत कबीर दास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय

साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय
साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो खेती लहलहाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कई बार हम अपने कमजोर दिल और रिश्तों की बाध्यता के चलते मूर्खों और अज्ञानियों की संगत नहीं छोड़ते यह सोचकर कि इससे हमारी क्या हानि होगी? यह भ्रम है क्योंकि मूर्ख और अज्ञानी कभी भी हमें संकट में डाल सकते हैं। कुछ लोग अपनी मूर्खतावश दूसरे को हानि पहुंचाने के हमेशा तत्पर रहते हैं उनको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बाद में क्या परिणाम होगा? अगर ऐसे लोगों के साथ हम रहेंगे तो उनके किसी कुकृत्य के छींटे हमारे ऊपर भी आ सकते है। कई बार आपने देखा होगा कि कोई आदमी अपराध करता है तो उसके संगी साथियों की तलाश होती हैं। आजकल तो आपने देखा होगा कि किसी अपराध के होने पर मोबाइल के विवरण भी निकाले जाते हैं। अगर किसी ने अपराध किया जाता है तो उससे बात करने वाले सभी लोगों की छानबीन भी होती है।

आधुनिक संवाद साधनों ने लोगों के संपर्क बहुत सहज बना लिये हैं ऐसे में अपना व्यवहार करने वालों के प्रति अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। खासतौर से युवक युवतियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिये। हो सकता है कि उनको कुछ मित्र पंच सितारा होटलों में भोजन करने के लिये निमंत्रण देते हों पर उनका आचरण ठीक न हो। इसलिये मित्रता और व्यवहार में ऐसे मूर्खों और अज्ञानियों से दूर ही रहें जिनका लक्ष्य अपवित्र या अज्ञात है। उससे अच्छा तो साधु स्वभाव और अच्छे आचरण के लोगों से अपनी संगत करें जो भले ही न तो पंचसितारा होटल में भोजन करायें और न लच्छेदार बातें करें।
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Friday, August 21, 2009

मनु स्मृति-यज्ञ न करें तो नाम जपने से भी होता है लाभ (manu smruti-nam japne se labh hota hai)

जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः।
कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
हिंदी में भावार्थ-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जाप यज्ञ से ही किसी को भी लाभ हो सकता है। परमात्मा का नाम जाप करने वाला अगर कोई अन्य यज्ञ नहीं करे तो भी उसे सिद्धि मिल जाती है और उसे समाज में भी सम्मान प्राप्त होता है।

इंद्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु।
संयमे यलमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-
एक विद्वान अपने मन और इंद्रियों पर वैसे ही लगाम से नियंत्रण करता है जैसे कि कोई कुशल सारथी अपने घोड़ों पर करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुमहाराज ने भी समाज में कर्मकांडों को महत्व को नकारते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि अगर कोई मनुष्य हृदय से भगवान का जाप करे तो उसे पूरी तरह भक्ति का लाभ होगा। मनुमहाराज को भारतीय समाज का पथप्रदर्शक कहा जाता है। आलोचक तो उन पर समाज में अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाते हैं जबकि उनका यह स्पष्ट मत है कि अगर मनुष्य भगवान का नाम हृदय से जाप करे तो उसे कोई अन्य यज्ञ या हवन करने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि मनुमहाराज के प्रशंसक होने का दावा करने वाले अन्य प्रकार के कर्मकांडों पर ही अधिक जोर देते हैं और हृदय से जाप करने की बजाय न बल्कि स्वयं बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते हैं-कहीं कहीं तो बाध्य भी करते हैं।
उसी तरह मनु महाराज यह भी कहते हैं कि विद्वान वही है जो अपनी इंद्रियों पर अपना शासन करता है न कि उनसे शासित होता है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में शिक्षा का विस्तार होने के साथ ही लोगों में व्यसनों की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। शराब पीना तथा अनैतिक संबंध स्थापित करना शिक्षित लोगों के लिये एक फैशन बन गया है। असंयमित जीवन जीने वाले अधिकतर वही लोग हैं जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और अपने आपको विद्वान कहने में उनको गौरव की अनुभूति होती है। सबसे अधिक लालच, लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति का शिकार पढ़ा लिखा तबका ही हुआ है। मनुमहाराज के संदेश के अनुसार तो वह साक्षर और शिक्षित हैं पर विद्वान नहीं है। विद्वान तो उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो अपनी इंद्रियों पर संयम रखता हो।
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Wednesday, August 12, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-बुढ़ापे में अच्छी आदतें डालना संभव नहीं (budhape men achchi adten)

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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Monday, August 10, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-चेतन पुरूष अपमान नहीं सहते (chetan purush apman nahin sahte-hindi sandesh)

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिंक कथं सहते ।।
हिंदी में भावार्थ-
सूर्य की रश्मियों के ताप से जब जड़ सूर्यकांन्त मणि ही जल जाती है तो चेतन और जागरुक पुरुष दूसरे के द्वारा किये अपमान को कैसे सह सकता है।

लांगल चालनमधश्चरणावपातं भू मौ निपत्य बदनोदर दर्शनं च।
श्चा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु धीरं विलोकपति चाटुशतैश्चय भुंवते।।
हिंदी में भावार्थ-
श्वान भोजने देने वाले के आगे पूंछ हिलाते हुए पैरों में गिरकर पेट मूंह और पेट दिखाते हुए अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है जबकि हाथी भोजन प्रदान करने वालो को गहरी नजर से देखने के बाद उसके द्वारा आग्रह करने पर ही भोजन ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भले ही आदमी के पास अन्न और धन की कमी हो पर मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए नहीं तो अधिक धनवान, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोग उसे गुलाम बनाये रखने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। आजकल सुख सुविधाओं ने अधिकतर लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर से सुस्त बना दिया है इसलिये वह उन्हें बनाये रखने के लिये अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों की चाटुकारिता में लगना अपने लिये निज गौरव समझते हैं। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों का शोषण बढ़ रहा है। हमारे यहां की शिक्षा कोई उद्यमी नहीं पैदा करती बल्कि नौकरी के लिये गुलामों की भीड़ बढ़ा रही है। कितनी विचित्र बात है कि आजकल हर आदमी अपने बच्चे को इसलिये पढ़ाता है कि वह कोई नौकरी कर अपने जीवन में अधिकतम सुख सुविधा जुटा सके। ऐसे में बच्चों के अंदर वैसे भी स्वाभिमान मर जाता है। उनका अपने माता पिता और गुरुजनों से अच्छा गुलाम बनने की प्रेरणा ही मिलती है।

ऐसी स्थिति में हम अपने देश और समाज के प्रति कथित रूप से जो स्वाभिमान दिखाते हैं पर काल्पनिक और मिथ्या लगता है। स्वाभिमान की प्रवृत्ति तो ऐसा लगता है कि हम लोगों में रही नहीं है। ऐसे मेें यही लगता है कि हमें अब अपने प्राचीन साहित्य का अध्ययन भी करते रहना चाहिये ताकि पूरे देश में लुप्त हो चुका स्वाभिमान का भाव पुनः लाया जा सके।
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Saturday, August 8, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-सुख प्राप्त करने के लिए विद्वान बनने की इच्छा (hindi gyan sandesh-vidvata aur sukh)

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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पुरा विद्वत्तासीदुषमवतां क्लेशहेतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।
इदानी, सम्प्रेक्ष्य क्षितितललभुजः शास्त्रविमुखानहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति।।


हिंदी में भावार्थ-प्राचीन काल में वह लोग विद्याध्ययन करते थे जो मानसिक तनाव से मुक्ति चाहते थे। बाद में ऐसे लोगों ने इसे अपना साधन बना लिया जो उससे विद्वता अर्जित कर विषय सुख प्राप्त करना चाहते थे। अब तो लोग उससे बिल्कुल विमुख हो गये हैं। उनको पढ़ना तो दूर सुनना भी नहीं चाहते। राजा लोग भी इससे विमुख हो रहे हैं। इसलिये यह दुनियां पतन के गर्त में जा रही है जो कि कष्ट का विषय है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- हमारे प्राचीन मनीषियों ने अपनी तपस्या और यज्ञों से जो ज्ञान अर्जित कर उसे शास्त्रों में दर्ज किया वह अनूठा है। इसी कारण विश्व में हमें अध्यात्म गुरु की पहचान मिली। अनेक ग्रंथ आज भी प्रासंगिक विषय सामग्री से भरपूर हैं पर लोग हैं कि उसे सुनना नहीं चाहते। पहले जहां लोग ज्ञानार्जन इसलिये करते थे ताकि उससे अपने जीवन को सहजता पूर्वक व्यतीत कर सकें। बाद में ऐसे लोग बढ़ने लगे जो उनका ज्ञान रटकर दूसरों को सुनाने का व्यापार करने लगे। उनका मुख्य उद्देश्य केवल अपने लिये भोग विलास की सामग्री जुटाना था। अब तो पूरा समाज ही इन शास्त्रों से विमुख हो गया है हालांकि ज्ञान का व्यापार करने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं और उनके लिये तो पौ बाहर हो गया है। इसका कारण यह है कि लोगों को अपने शास्त्रों की रचनाओं का जरा भी आभास नहीं है। आज के तनाव भरे युग में लोग जब वह किसी के श्रीमुख से उन शास्त्रों के अच्छे वाक्य सुनते हैं तो प्रसन्न हो जाते हैं और फिर वक्ताओं को गुरु बनाकर उन पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। ऐसा करने की बजाय लोग शास्त्रों का अध्ययन इसलिये करें ताकि उसके ज्ञान से उनके मन का तनाव कम हो सके तो अच्छा हो।

वैसे आजकल लोग शिक्षा इसलिये प्राप्त कर सकें ताकि उससे किसी धनपति की गुलामी करने का सौभाग्य मिले। यह सौभाग्य कई लोगों को मिल भी जाता है पर तनाव फिर भी पीछा नहीं छोड़ता। हमारे देश में लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिससे गुलाम पैदा हों और गुलाम कभी सुखी नहीं रहते। वैसे यह आरोप लगाना गलत है कि लार्ड मैकाले ने ही ऐसा किया। राजा भर्तृहरि के संदेशों को देखें तो उनके काल में ही समाज अपने शास्त्रों से विमुख होने लगा था। इसलिये इस बात को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिये कि हमने विषयों में आसक्ति के कारण शास्त्रों से मूंह फेरा है न कि विदेशियों के संपर्क के कारण! हमारे शास्त्रों का ज्ञान जीवन में तनाव से मुक्ति दिलाता है इसलिये उनका निरंतर अध्ययन करना चाहिये।
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Thursday, August 6, 2009

संत कबीर के दोहे-स्वार्थी को सेवक मानना ठीक नहीं (Couplets of Sant Kabir - the selfish servant not believe )

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम

जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। यह कीमत भी चौगुना होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी ‘समाजसेवी’की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना रखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कुल मिलाकर समाजसेवा आजकल एक व्यापार की तरह हो गयी है। सच्चा सेव तो उसे माना जाता है जो बिना प्रचार के निष्काम भाव से सच्ची सेवा करते हैं। अपने भले काम का प्रचार करने का आशय यही है कि कोई आदमी उसका प्रचार कर फायदा उठाना चाहता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम जब कोई भला काम कर रहे होते हैं तो यह भावना मन में आती है कि कोई ऐसा करते हुए हमें देखें तो इसका आशय यह है कि हम निष्काम नहीं हैं-यह बात हमें समझ लेना चाहिये। जब हम कोई भला काम करें तो यह ‘हमारा कर्तव्य है’ ऐसा विचार करते हुए करना चाहिये। उसके लिये प्रशंसा मिले यह कभी नहीं सोचें तो अच्छा है। इससे एक तो प्रशंसा न मिलने पर निराशा नहीं होगी और काम भी अच्छा होगा।
संत कबीर संदेशः फल की चाहा में मन से काम नहीं होता
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Tuesday, August 4, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-कविताओं से बहक जाते हैं लोग (kavita se log bahak jate-dharm sndesh)

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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सत्यत्वे न शशांक एव बदनीभूतो न चेन्दोवर द्वंद्व लोनतां गतं न कनकैरष्यंगयश्टिः कूता।
किंतवेवं कविभि प्रतारितमनतत्वं विजनान्नपि त्वं मांसस्थ्मियं वयूर्मृगदृशां मंदो जनः सेवते।।


हिंदी में भावार्थ- न तो चंद्रमा जमीन पर आकर किसी सुंदरी युवती के मुख पर सजा है और न ही कभी कमल ने किसी के नेत्र का स्थान लिया है और न ही किसी की देह सोने से बनी है पर फिर भी कविगणों के बहकावे में सामान्य लोग आ जाते हैं और हाड़मांस के इस नश्वर को सर्वस्व मानते हुए भोगों में लिप्त हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-बरसो पूर्व कही गयी यह बात आज भी कितनी प्र्रासंगिक है। हमारे यहां आजकल फिल्मों में सूफी तरीके से गीत लिखे जा रहे हैं जिसमेंे भगवान और प्रेमिका को एक ही गदद्ी पर बिठाया जाता है यानि उस गीत को सोलह साल का लड़का अपनी प्रेयसी पर भी गा सकता है और कोई भक्त भगवान के लिये भी गा सकता है। सच तो यह है कि सच्चे भक्त के लिये तो किसी सुर संगीत की आवश्यकता तो होती नहीं इसलिये वह उनके दांव पर नहीं फंसते पर युवक युवतियां उन गीतों पर झूमते हैं और कभी कभार तो यह लगता है कि इस तरह देश को बहकाया जा रहा है। उनके दांव में कच्चे भक्त भी फंस जाते हैं और गीत सुनकर अपनी गर्दन हिलाने लगते हैं।
भगवान की निष्काम भक्ति का सर्वश्रेष्ठ रूप एकांत में उनका ध्यान और स्मरण करना है जबकि सुर संगीत से उनका स्मरण करना एक तरह से सकाम भक्ति का प्रमाण है और जिस तरह प्यार प्यार की बात आती है उससे तो ध्यान भटकता है और देह तथा मन को कोई लाभ भी हीं होता।
इस तरह भगवान और प्रेयसी के प्रति एक साथ प्रेम पैदा करने वाले शब्द केवल बहकाते हैं और आजकल के व्यवसायिक युग में इसका प्रचलन बढ़ गया है। कभी कभी तो लगता है कि इस तरह के सूफी गीत भारत के युवाओं में मौजूद अध्यात्मिक की स्वाभाविक प्रवृति को अपने स्वार्थ को भुनाने के लिये लिखे गये हैं।
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Monday, August 3, 2009

चाणक्य नीति-दुष्ट से संपर्क सज्जन को भी नष्ट कर देता है (chankya niti-dusht aur sajjan)

ग्रहीत्वां दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्यां गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा।
हिंदी में भावार्थ-
ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान का घर छोड़ देते हैं। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य उसे दक्षिण देकर आश्रम से चले जाते हैं। उसी तरह जंगल जल जाने पर मृग उसका त्याग कर देते है।

दुराचारी च दुर्दृष्टिराऽवासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति।।

हिन्दी में भावार्थ-दुराचारी, कुदृष्टि रखने और बुरे स्थान पर रहने वाले व्यक्ति से संबंध बनाने पर श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संबंध बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिये। देखा गया है कि आजकल के युवक युवतियां अक्सर संबंध तात्कालिक आकर्षण में फंसकर मित्रता ऐसे लोगों से कर बैठते हैं जिनके स्वभाव और इतिहास का पता उनको नहीं होता। बाद में जब वह उनकी वजह से कहीं फंस जाते हैं तब उनको अपनी गलती की अनुभूति होती है मगर तब देर भी हो जाती है। ऐसी एक नहीं अनेक घटनायें घटित हो चुकी हैं जिसमें किसी भले युवक ने किसी गलत साथी का चुनाव किया और बाद में उसके अपराध के छींटे उस पर भी पड़े। उसी तरह युवतियों ने भी प्रारंम्भिक आकर्षण में आकर ऐसे लड़कों से प्रेम प्रसंग स्थापित किये जिसका परिणाम उनके लिये घातक रहा। कई बार तो वह ऐसे युवकों से विवाह भी कर बैठती हैं जो दिखाने के लिये अपने संस्कर अच्छे दिखाते हैं पर बाद में उनकी असलियत सामने आती है तो युवतियों को पछतावा होता है। अनेक युवतियां पहले अपने घरेलू संस्कारों को भुलाकर ऐसे लड़कों से विवाह कर बैठती हैं जिनके घरेलू संस्कार बिल्कुल विपरीत होते हैं। विवाह से पहले तो उनके घर से लड़कियों का संबंध नहीं होता पर बाद विवाह बाद जब उसके परिवार वाले अपने संस्कार अपनाने को विवश करते हैं तब लड़कियों को बहुत परेशानी आती है और इसी बात पर सबसे अधिक तनाव उनको ही झेलना पड़ता है क्योंकि पुरुष तो घर से बाहर रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लड़का हो या लड़की उसे अपने संबंध बनाने से पहले सामने वाले व्यक्ति की पूरी जांच करना चाहिये।

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जब कहीं से अपना उद्देश्य पूरा हो जाये तो उस स्थान पर अधिक नहीं ठहरना चाहिये। कहने का तात्पर्य यह है कि इस जीवन में अपने कार्य और उद्देश्य पूर्ति के लिये अनेक स्थानों पर जाने के साथ ही लोगों से संपर्क भी बनाने पड़ते हैं। उनमें अपनी लिप्तता उतनी ही रहना चाहिये जितनी अपने हित के लिये आवश्यक हो। अधिक लिप्तता कार्य और उद्देश्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती है।
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Sunday, August 2, 2009

चाणक्य नीति-भोजन में संतोषी और ज्ञानार्जन में असंतोषी रहें (chankya niti-bhojan men santosh aur gyan men asantosh)

संतोषस्त्रिशु कत्र्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कत्र्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को अपनी पत्नी, भोजन और धन से ही संतोष करना चाहिये पर ज्ञानार्जन, भक्ति और दान देने के मामले में हमेशा असंतोषी रहे यही उसके लिये अच्छा है।

संतोषाऽमृत-तुप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलूब्धानामितश्चयेतश्च धावताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य संतोष रूप अमृत से तुप्त है उसका ही हृदय शांत रह सकता है। इसके विपरीत जो मनुष्य असंतोष को प्राप्त होता है उसे जीवन भर भटकना ही पड़ता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के संदेशों के ठीक विपरीत हमारा देश चल रहा है। जिन लोगों के पास धन है उनके पास भी संतोष नहीं है और जिनके पास नहीं है उनसे तो आशा करना ही व्यर्थ है। अपनी पत्नी और घर के भोजन से धनी लोगों को संतोष नहीं है। जीभ का स्वाद बदलने के लिये ऐसी वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है। कहा जाता है कि खाने पीने की वस्तुओं को स्वच्छता होना चाहिये पर होटलों और बाजार की वस्तुओं में कितनी स्वच्छता है यह हम देख सकते हैं। किसी रात एक साफ रुमाल घर में रख दीजिये और सुबह देखिये तो उस पर धूल जमा है तब बाजार में कई दिनों से रखी चीजों में स्वच्छता की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है। घर में गृहिणी सफाई से भोजन बनाती है पर क्या वैसी अपेक्षा होटलों के भोजन में की जा सकती है। ढेर सारे ट्रक, ट्रेक्टर,बसें, मोटर साइकिलें तथा अन्य वाहन सड़कों से गुजरते हुए तमाम तरह की धूल और धूंआ उड़ाते हुए जाते हैं उनसे सड़कों पर स्थित दुकानों,चायखानों और होटलों में रखी वस्तुओं के विषाक्त होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे में बाजारों में खाने वाले लोगों के साथ अस्पतालों में मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात क्या है?
इसके विपरीत लोगों की आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति के भाव के प्रति कमी भी आ रही है। लोगों को ऐसा लगता है कि यह तो पुरातनपंथी विचार है। असंतोष को बाजार उकसा रहा है क्योंकि वहां उसे अपने उत्पाद बेचने हैं। प्रचार के द्वारा बैचेनी और असंतोष फैलाने वाले तत्वों की पहचान करना जरूरी है और यह तभी संभव है कि जब अपने पास आध्यात्मि ज्ञान हो।
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Saturday, August 1, 2009

भर्तृहरि नीति शतक- कामदेव अपनी उपेक्षा करने वाले को सजा देते हैं (kamdev ki saja-bhartrihari shatak)

स्त्रीमुद्रां कुसुमायुधस्य जविनीं सर्वार्थस्म्पत्करीं ये मूढ़ा प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषणः।
ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः केचित्तपंचशिखीकृताश्च जटिलाः कापालिश्चापरे।।

हिंदी में भावार्थ- जो मूर्ख लोग काम पर विजय प्राप्त करने के लिये स्त्री का त्याग करते हैं उनको कामदेव दंड देकर ही रहते हैं। उसमें कोई कोई वस्त्रहीन होकर धर्म का पालन करने लगता है तो कोई सिर मुंडवा लेता है। कोई बड़े बालों की जटा बना लेता है तो कोई भीख मांगने ही लग जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-भर्तृहरि जी का यह संदेश बहुत रोचक तथा प्रेरणादायक है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में कुछ लोग अध्यात्म ज्ञान का गलत अर्थ लेकर काम से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। ऐसे लोग वैराग्य वेश धारण करते हैं। इनमें से कोई जीवन भर वस्त्र नहीं पहनता तो कोई अपने बाल मुंडवा लेता है। कोई सिर पर जटा धारण कर लेता है। यह सभी लोग अर्थाजन तो करते नहीं इसलिये पेट पालने के लिये उनको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि उन्हें शिष्य बनाकर उनसे दान लेना ही पड़ता है। यह सभी अध्यात्म ज्ञान के गलत अर्थ लेने के कारण है। सच बात तो यह है कि हमारी श्रीमद्भागवत गीता आदमी को त्याग के लिये प्रेरित करती है पर उसका आशय यह नहीं है कि वह सांसरिक कार्यों से वैराग्य लिया जाये। सांसरिक कार्य करते हुए उनके फल में लिप्त न होना ही वास्तविक त्याग है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य अपने मूल स्वभाव के अनुकूल कर्म करने को बाध्य होता है-जिसका साीधा आशय यह है कि मनुष्य को अपने तन,मन और विचारों की तृष्णा शांत करने के लिये जीवन में कार्य तो करना ही है। श्रीगीता में सांख्यभाव की चर्चा है पर यह भी कहा गया है कि वह एक असंभव काम है। सांख्यभाव का मतलब यह है कि इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण-यानि आंखों से देखें ही नहीं, नाक से सांस ही न लें और कान से सुने ही नहीं। यह एक कठिन त्याग है और इसे विरले योगी ही कर पाते हैं। सभी के लिये यह संभव नहीं है। इसके बावजूद कुछ लोग सांस लेते, आंख से देखते,पांव से चलते और मुख से खाते हुए वैराग्य का ढोंग करते हैं और उनको अंततः दूसरे लोगों का आसरा लेना पड़ता है। एक तरह से कामदेव उनको दंड देते हैं।

देखा जाये तो भर्तृहरि के काल में भी ढोंगी थे और आज अधिक ही हो गये हैं। कहने को अनेक लोग वैरागी हैं पर उनके यौन प्रकरण अक्सर चर्चा में आते हैं। अनेक लोग तो वैराग्य का दिखावा करते हुए विवाह तक कर लेते हैं पर सार्वजनिक रूप से अपनी पत्नी को मानने से इंकार करते हैं। एक तरह से यह उनके स्वयं के लिये भी दुःखदायी है। वह कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ढोंग करते हैं तो कामदेव भी उनको एक तरह से चोर और भिखारी बना देते हैं।
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