इस समय हमारे देश में मांसाहार को लेकर भारी बहस चल रही है। कोई कहता है कि
मांस खाना हमारे धर्म के अनुसार ठीक है तो कोई कहता है कि वह हमारे धर्म के अनुसार
अपराध है। भारत के प्राचीन ग्रंथ किसी कार्य को बुरा या अच्छा नहीं कहते। उनमें
किसी भोजन को वर्जित या स्वागत योग्य नहीं कहा गया है। हमारे दर्शन के अनुसार यह संसार कर्म और फल के
सिद्धांत पर चलता है। ‘जैसा खाये वैसा हो जाये
मन’ ‘जैसा बोयेगा वैसा काटेगा’ तथा ‘बोये पेड़ बबूल का आम कहां से होय’ जैसी उक्तियां- जिन्हें हम सांसरिक सिद्धांत भी कह सकते हैं-हमें कर्म फल
का सिद्धांत समझाती हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
-----------------यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।तद्वाप्नोत्ययलेन यो हिनस्ति न किञ्चन।।हिन्दी में भावार्थ- जो मनुष्य किसी के साथ हिंसा नहीं करता वह जिस लक्ष्य का चिंत्तन करता है उसे अपने कर्म और ध्यान से बिना किसी विशेष कठिनाई के प्राप्त कर लेता है।नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंस मांसमुत्पद्यते क्वचित्।न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तम्मानान्मांसं विवर्जयेत्।।हिन्दी में भावार्थ-मांस की प्राप्ति किसी दूसरे जीव के वध से ही संभव है लेकिन हिंसा से स्वर्ग नहीं मिलता इसलिये मांस खाने का विचार ज्ञानी को करना ही नहीं चाहिये।
योग और ज्ञानसाधक हमेशा खान पान
रहन सहन और संबंध निर्माण में हमेशा सतर्कता बरतते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि
उनका प्रभाव उनकी देह, मन और विचार पर पड़ता है। श्रीमद्भागवत गीता में गुणों और इंद्रियों का
सहसंबंध बताया गया है। श्री गीता के अनुसार व्यक्ति स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता
है।
इधर हम देख रहे हैं कि हमारे देश में आत्म निर्माण की बजाय समाज सुधार का
प्रचलन बढ़ा है। विदेशी विचाराधाराओं के कर्णधार समाज के दोषों के निवारण के अभियान
चलाते हैं जबकि उनका स्वयं का चरित्र प्रमाणिक नहीं होता। कोई मांस खा रहा है या
गलत संगत में समय गुजार रहा है यह उसकी समस्या होना चाहिये। ज्ञानसाधक उससे संपर्क रखकर अपने अंदर उसके
दुर्गण प्रविष्ट नहीं होने देता न कि उस उपदेश देकर बैर लेने का काम करता है।
अभी हाल ही में हमने देखा कि मंास के विरुद्ध जब प्रचार चल रहा था तब कुछ
मनचलों ने मांस सार्वजनिक रूप से खाकर लोकतांत्रक अधिकार के प्रदर्शन का उपक्रम
किया। एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में हमें उन पर तरस आया। किसी पदार्थ को खाना ही महत्वपूर्ण नहीं होता
उसे पचाने के लिये पेट में संघर्ष चलता है। जिसे केवल योग साधक ही देख पाते हैं
यही कारण है कि वह ऐसा सुपाच्य भोजन करते हैं जो तन मन और मस्तिष्क की इंद्रियों
को व्यथित न करे। यह बात व्यंग्यपूर्ण
जरूर लगे पर फिर भी कह रहे हैं कि मांस खाने वाले शाकाहारियों के मित्र ही है
क्योंकि वह अगर सब्जियां खाना प्रारंभ करें तो वह आपूर्ति नियम के अनुसार वह अधिक
महंगी हो जायेंगी-वैसे भी इस समय दाल और सब्जियां मौसम की मार से महंगी हो रही
हैं। हम तो मांसाहारियों की तरीफ तब अधिक
करेंगे जब वह बिना धनियां, नीबू, प्याज हरी मिर्च और प्राकृतिक मसालों के बिना भी किया करें जैसे कि
शाकाहारी लोग मटर, गोभी, लौकी तथा करेला स्वास्थ्य की दृष्टि से करते हैं-इससे भी मसालों की महंगाई
कम होगी।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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