हमारे समाज में परनिंदा की प्रवृत्ति
बहुत देखी जाती है। जहां चार लोग मिलेंगे वहां किसी अन्य की निंदा करते हुए अपनी
चर्चा करेंगे। इसके अलावा अपने गुणों तथा
कल्पित परोपकार की बात सुनाते हुए अपनी प्रशंसा करते हुए कहीं भी लोगों को देखा जा
सकता है। उससे भी बड़ी बात यह कि ज्ञान की बातें बखान करने वाले कदम कदम पर मिल
जायेंगे। जहां तक उस ज्ञान को धारण करने
वालों की संख्या की बात है वह नगण्य ही नज़र आती है। ज्ञान और योग साधना में लिप्त
लोगों के लिये भारतीय समाज में व्याप्त अंतर्विरोध हमेशा ही शोध का विषय रहा
है। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक विषय में नित्य नये नये सृजन होते
रहते हैं। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक
सिद्धों की रचनाऐं लोग पढ़ते हैं और फिर उनको रटकर एक दूसरे को सुनाते हैं। उस ज्ञान को धारण करने की कला किसी किसी को ही
आती है जबकि सामान्य मनुष्य ज्ञान का बखान तो करता है पर अपना पूरा पंाव अज्ञान की राह पर ही रखता है।
सच बात यह है कि
श्रीमद्भगवत्गीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। इंद्रियां ही
विषयों में लिप्त हैं। त्रिगुणमयी माया
में फंसा मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार ही विचार करते हुए व्यवहार करता है। इसलिये ज्ञान साधकों को कभी किसी की निंदा नहीं
करते हुए इस बात का विचार अवश्य करना चाहिये कि जिस व्यक्ति का खान पान, रहन सहन तथा संगत जिस तरह की होगी वैसा ही वह
काम तथा आचरण करेगा।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि-----------------गृह्यऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मासंभोजिनः।द्रव्यनुलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणाभ्य न पवित्रता।।हिन्दी में भावार्थ-घर में आसक्ति रखने वालों को कभी विद्या प्राप्त नहीं होती, मांस खाने वालों में दया नहीं होती, धन के लोभी में कभी सच्चाई नहीं होती और भोग विलासी में विचारों की पवित्रता नहीं होती।
हमारे समाज में एक बात
दूसरी भी देखी जाती है कि अर्थ, राज्य
तथा धर्म के शिखर पर स्थिति पुरुषों की तरफ आशा भरी नज़रों से देखता है। वह सोचता
है कि उनमें शायद समाज भक्ति पैदा हो और वह उस पर कृपा करें। वह उनके विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की तरफ नहीं देखता। जिन शिखर
पुरुषों में समाज के प्रति दया, सद्भावना
तथा प्रेम का भाव है वह बिना प्रचार ही अपना काम करते है। जिनके मन में संवेदना
नहीं है वह पाखंड बहुत करते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिखर पुरुष तो दिखावे के लिये
समाज सेवा करते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य
अपने परिवार तथा कुल को प्रतिष्ठा दिलाकर अधिक शक्ति प्राप्त करना ही होता
है। समाज से दूर होने के कारण उनके घर के
सत्य बाहर नहीं आ पाते पर फिर अपने सामान्य व्यवहार में उनका चरित्र सामने आ ही
जाता है। वह प्रचार के लिये समाज के साथ सहानुभूति अवश्य जताते हैं उनके किसी कर्म
से ऐसा नहीं लगता कि वह आशाओं पर खरे उतरेंगे। उनसे किसी भी प्रकार समाज हित की
आशा करना व्यर्थ है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment