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Wednesday, July 31, 2013

संत कबीरदास दर्शन-अध्यात्म की साधना में वीरता होना आवश्यक (sant kabirdas darshan-adhyatma sadhana mein veerta hona avashyak)



      हमारे देश में आजकल योग साधना विधा का अत्यंत प्रचार हो रहा है।  अनेक योग साधक प्रचारक अत्यंत परिश्रम से इसका प्रचार कर रहे हैं। उनकी जितनी प्रशंसा की जाये अत्यंत कम है।  उनके निष्काम प्रयासों के परिणाम यह तो हुआ है कि सामान्य लोग योग साधना का महत्व समझ गये हैं, जिससे योग साधकों की संख्या बढ़ी भी है फिर जनसंख्या की दृष्टि से उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता।  सच तो यह है कि देश में मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने सामान्य मनुष्य की बुद्धि का हरण कर लिया है और लोग देर रात तक जागते हैं और सुबह प्रातःकाल भी निद्रा उनको घेर रहती है। कहा जाता है कि प्रातः सुबह साढ़े तीन बजे से साढ़े चार बजे तक प्रथ्वी पर  आक्सीजन सर्वाधिक मात्रा में होती है। इस अवधि का लाभ उठाने वाले हमारे देश में बहुत कम हैं।  हालांकि कुछ वीर ऐसे भी हैं जिन्होंने जीवन भर इसी समय का जमकर लाभ उठाया हैं। इस लेखक ने अनेक ऐसे लोग देखे हैं जो सुबह चार बजे उठकर बिना किसी अवरोध के भ्रमण करते हैं और वह किसी अन्य मनुष्य से अधिक स्वस्थ लगते हैं। 
       योग साधना के प्रचार के बाद अब साधकों की संख्या भी बढ़ी है फिर भी अधिकतर लोग इसे अपनाना नहीं चाहते।  दरअसल प्रातः जल्दी उठकर भ्रमण या योग साधना करने के लिये त्याग का भाव होना आवश्यक है। जो इस संबंध में नियम बनाते हैं वह सांसरिक विषयों से उस अवधि में अलग हो जाते हैं।  हमें घूमना ही  है या योग साधना करना ही है, यह भाव जिनके मन में आता है वह कहीं न कहीं सांसरिक विषय का त्याग कर अध्यातम के प्रति झुक जाते हैं। अध्यात्म का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सुबह उठकर भगवान की सकाम भक्ति की जाये अथवा किसी मूर्ति के पास जाकर सिर झुकाया जाये। यह मनुष्य देह परमात्मा ने दी है इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह से उसकी पूजा करना ही है।  इसके लिये अध्यात्म चेतना आवश्यक है जो कि सांसरिक विषयों से हृदय का भाव त्यागने पर ही उत्पन्न होती है।  मनुष्य सांसरिक विषयों से कुछ देर भी प्रथक नहीं रहना चाहता है।  
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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मारग कठिन कबीर का, धरि न सकै पग कोय।
आय चले कोई सूरमा, जा धड़ सीस न होव।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म का मार्ग अत्यंत कठिन है, इस पर हर कोई कदम नहीं रख सकता।
कायर का काचा मता, घड़ी पलक मन और।
आगा पीछा ह्वै रहै, जागि मिसै नहिं ठौर।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अध्यात्म साधना के क्षेत्र में अपरिपक्व तथा कायर का मन इधर से उधर भटकता भी है। साधना के क्षेत्र में पहले आग में जलना पड़ता है फिर राम शब्द का उच्चारण करना होता है।
       अस्वस्थ देह में विकारपूर्ण मन लोगों को भटका रहा है। अपने शहर में प्रातःकाल उठकर सैर सपाटे पर जाना, योग साधना करना  या मंदिर में जाने वाले लोगों के मन में एक शांति रहती है। इसके विपरीत जो अपने शहर में ही नहीं घूमते वही धर्म के नाम पर पर्यटन के नाम कथित भक्ति का पाखंड करते हुए इधर से उधर भागते हैं।  देश के बड़े शहरों में अनेक प्रसिद्ध बड़े मंदिर हैं जहां लोग जाते है।  देखा जाये तो हर शहर में कोई न कोई सिद्ध मंदिर होता है पर जो अपने घर के पास के मंदिर में ही जाने का कष्ट नहीं करते वही बड़े सिद्ध मंदिरों पर दर्शन करने के बहाने पर्यटन करने के लिये लालायित होते हैं।  यही मन मन का भटकाव है जो अध्यात्म ज्ञान के अभाव में पैदा होता है। सासंरिक विषयों में सतत लगा मन ऊबने लगता है और अपरिपक्त तथा कच्चे विचारों वाले लोग उसके जाल में फंसे रहते हैं।  इसके विपरीत जो प्रातःकाल वीरता पूर्वका\ भ्रमण, योग साधना या मंदिर में जाते हैं उनका चित्त हमेशा प्रसन्न रहता है ।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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