यह
मानव का स्वभाव है कि वह सांसरिक विषयों में
हमेशा अन्य लोगों से श्रेष्ठ दिखने का प्रयास करता है। सभी लोग एक दूसरे से भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति में आगे निकलना चाहते हैं। यही कारण है कि माया सभी को नचा रही है। माया ही
उन्नति का प्रमाण है तो वह पतन का कारण भी बनती है। मनुष्य मन की तृष्णा उसे इधर उधर भगाती हैं। इधर सुख मिलेगा वह एक मार्ग पकड़ता है। वहां पहुंचकर
उसे लगता है कि दूसरी जगह आनंद मिलेगा। वह उधर भागता है। भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि उसे विचार शक्ति से शून्य
कर देती है। इस भागमभाग में अनेक बार मनुष्य को कष्ट का सामना
करना पडता है।
सोने का
मृग कभी नहीं बना पर भगवान श्रीराम ने जब मारीचि
को स्वर्णमृग में रूप में देखा तो उसे पाने का मोह पाल बैठे। वह तो बहुत ज्ञानी ध्यानी थे फिर भी मृग मारीचिका
का शिकार बने तो फिर आम आदमी की बिसात ही क्या? भौतिक उपलब्धियों में डूबा मनुष्य
कभी प्रसन्न नहीं रह पाता। जब तक इच्छित वस्तु मिली नहीं है तब तक आदमी उसके लिये जी भर के संघर्ष
करता हैं। जब वह मिलती है तो क्षणिक प्रसन्नता मिलने के बाद फिर दूसरी का मोह जागता हैं। संसार का यह सत्य सब जानते हैं फिर भी आदमी बेबस है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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न निर्मितः केन न दृष्टमूर्ख न श्रृवते
हेममयः कुरंगः।
तथापि तृष्णा रघुनन्दतस्य विनाशकाले
विपरीत बुद्धिः।।
हिन्दी में भावार्थ-स्वर्ण का मृग न कभी पहले
देखा गया न बाद में, फिर भी भगवान श्री राम का मन उसे पाने के लिये लालायित हो उठा। सच है मन की तृष्णा ही विनाशकाल के लिये विपरीत बुद्धि का निर्माण करती
है।
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको
निराश्रयः।
अनर्ध्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेश्चपेक्षते।।
हिन्दी में भावार्थ-सभी प्रकार के गुण होते हुए
ईश्वर के सामन व्यक्तित्व वाला व्यक्ति भी आश्रयहीन होने पर दुःख उठाता है। अत्यंत मूल्यवान मणि भी स्वर्ग में जड़े जाने की
अपेक्षा रखता है।
इस बेबसी
का कारण यह है कि मानव मन हमेशा ही समाज में प्रशंसा पाने के लिये तरसता है। भौतिक
उपलब्धियों की प्रतियोगिता से अगर वह बाहर बैठ जाये तो त्यागी हो जायेगा। ज्ञानी हो
जायेगा। यकीनन उसके अंदर अध्यात्मिक चेतना का जागरण होगा पर यह स्थिति उसे अकेला बना
देती है। सांसरिक पदार्थों के लिये भागमभाग
कर रहे लोग उसकी तरफ देखते भी नहीं। कह देते
हैं कि यह तो रिटायर हो गया है या बूढ़ा हो गया है या फिर जीवन में सक्रिय रहने की इसकी
औकात नहीं है।
इस बात से
बड़े से बड़ा ज्ञानी नहीं झेल पाता और वह अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये हमेशा ही
भौतिक संसार में लगा रहता है। यह अलग बात है
कि ऐसे ज्ञानियों की धारणा शक्ति क्षीण होती है। सच्चा ज्ञानी तो वही है जो अपने त्याग
का महत्व समझते हुए सांसरिक विषयों से उतना ही सम्बन्ध रखता है जिससे उसी आवश्यकता की पूर्ति होती रहे।
वह इतना धन संचय नहीं करता कि उसके लिये अपने
आध्यात्मिक ज्ञान से दूर होना पड़े। ज्ञान तथा
ध्यान के लिये समय ही न मिले। इसलिये वह अपने कर्म में निष्काम भाव से संलग्न रहता
है। ऐसे में भौतिक संसार उसके लिये कष्टमय इस अर्थ में होता है लोग उस पर सम्मान से भरी दृष्टि नहीं
डालते पर इस स्थिति को यह सोचकर वह सहन करता
है कि अज्ञानियों में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये प्रयास करना व्यर्थ है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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