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Saturday, July 27, 2013

मनृस्मृति के आधार पर चिंत्तन-जहां लक्ष्य एक ही हो वहां अपना त्याग करे (hindu dharma thought on manu smriti-mitra ke liye lakshya ka tyag karen)



        हमारे समाज में निंरतर व्यक्ति तथा परिवारों के स्तर पर आसपस तनाव बढ़ता जा रहा है।  सच बात तो यह है कि हम राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा स्थिरता की चिंता कर रहे हैं पर व्यक्ति तथा परिवारों की स्थिरता के बिना यह संभव नहीं है कि हम उत्थान के मार्ग पर चल सकें।  आर्थिक विकास आवश्यक है पर मनुष्य का अध्यात्मिक पतन होने पर उसका महत्व नहंी रहता।  हम चाहें कितने भी दावे करें पर पश्चिम की वैचारिक धारायें वहीं के देशों के अनुकूल नहीं रही क्योंकि उनका आधार राष्ट्र, प्रदेश, नगर, समाज, परिवार तथा व्यक्ति के क्रम में विकास का महत्व प्रतिपादित करती हैं जबकि मनुष्य का स्वभाव ठीक इस क्रम के विपरीत होता है।  सबसे पहले वह अपनी चिंता करता है फिर परिवार की। बाद में दूसरे क्रमों पर उसका ध्यान जाता  है।  अब हमारे यहां हो यह रहा है कि हम सोचते पश्चिम के आधार पर चलते अपने मूल रूप के साथ ही हैं।  सांसरिक विषयों का ज्ञान तो बहुत हो गया है पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है।  यही कारण है कि देश में लोगों के अंदर मानसिक तनाव बढ़ रहा है।  फलस्वरूप छोटी छोटी बातों पर हिंसा का तांडव नृत्य देखने को मिलता है।
मनुमृति में कहा गया है कि
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भूतानुग्रहविच्छेदजाते तत्र वदेत्प्रियम्।
दवमेव तु दवोत्थे शमनं साधुसम्मतम्।।
           हिन्दी में भावार्थ-जो प्राणियों के अनुग्रह के विच्छेद से विग्रह हुआ हो उसे अपनी मधुर वाणी से प्रियवचन बोलकर तथा जो दैव कोप से विग्रह  उत्पन्न हुआ हो उसे दैव की प्रसन्नता से शांत करने का प्रयास करें।
कुर्यायर्थदपरित्यागमेकार्थाभिनिवेशजे।
धनापचारजाते तन्निराधं न समाचरेत्।।
           हिन्दी में भावार्थ-जहां एक ही उद्देश्य के निमित विग्रह उपस्थित हो वहां दोनों में एक को अपना त्याग करना चाहिये। जहां धन के अपचार से अशांति उत्पन्न हो वहां विरोध न करें तो शांति हो जाती है।
           कहा जाता है कि झगड़े और अपराध का कारण हमेशा ही जड़, जमीन और जोरु होती है।  सबसे अधिक झगड़ा जमीन और धन को लेकर होता है। इन विषयों पर विवाद भी कोई गैरों में नहीं बल्कि अपनो के साथ ही होता है।  तय बात है कि जब कोई व्यक्ति अपना है और अज्ञानवश लोभ की प्रवृत्ति के चलते कोई चीज हमसे पाना चाहता है और हम उसे मना करें दें तो वह लड़ने पर आमादा होगा।  ऐसे मेें अध्यात्मक ज्ञानी को चाहिये कि वह त्याग के भाव का अनुसरण करे।  उसी तरह मित्रवर्ग में भी कभी समान रूप से एक ही लक्ष्य बन जाता है तब वातावरण में शत्रुता का भाव उत्पन्न होता है।  ऐसे में ज्ञानसाधक को चाहिये कि वह अपने उद्देश्य का त्याग करे। 
    उसी तरह हमें एक बात समझना चाहिये कि वर्तमान समय में हर कोई धन के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार है।  आदमी सज्जन भी हो पर उसके आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा पैदा की जाये तो वह दुर्जनता का व्यवहार कर सकता है।  उसी तरह अगर व्यक्ति मूलतः दुंर्जन है तो वह अधिक क्रूरता भी दिखा सकता है। इसलिये जहां तक हो सके दूसरों के आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधा पैदा करने का प्रयास नहीं करें तो ही ठीक रहेगा।  ज्ञान साधकों के लिये इस युग में सर्वाधिक सुखद स्थिति यह है कि वह किसी से डरे नहीं क्योंकि अकारण उनको कोई तंग नहीं कर सकता।  किसी के पास अपने लक्ष्यों के पीछा करने से समय ही नहीं मिलता।  अगर किसी प्रियजन या मित्र से बातचीत में वाद विवाद भी हो जाये तो उसे मधुर वाणी से शांत करें।  जहां तक गैरों का प्रश्न है जब किसी के कार्य में बाधा पैदा नहीं की जायेगी तब कोई भय भी उत्पन्न नहीं करेगा।  भयमुक्त रहना ही तनाव मुक्त रहने का सबसे सरल उपाय है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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