आमूलसिक्तः पया घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-दुर्जन व्यक्ति को कितना भी प्रेम से समझाया जाये पर वह किसी भी हालत में सज्जन भाव को प्राप्त नहीं होता, जैसे नीम का वृक्ष दूध और घी से सींचा जाये पर उसमें मधुरता नहीं आती।
गृहाऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनंः।
द्रव्ययालुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।
हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य महाराज के मतानुसार जिसकी घर में आसक्ति अधिक है उसे कभी विद्या प्राप्त नहीं होती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। जिसके मन में धन का लोभ है वह कभी सत्य की सहायता नहीं लेता। दुराचारी, व्याभिचारी तथा भोग विलास वाले व्यक्ति से पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने घर के मामलों में अधिक रुचि है वह कोई अन्य विद्या या ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।
मांसाहार के विषय में अनेक प्रकार की बहस होती है। अब तो यह पश्चिमी स्वास्थ्य और मनोचिकित्सक भी मानने लगे है कि मांसाहार से व्यक्ति में हिंसा की प्रवृ त्ति आती है। भारतीय अध्यात्मिक संदेश भी यही कहता है कि मनुष्य देह पंचतत्वों से बनी है और उनके गुणों के प्रभाव से ही उसका संचालन होता है। इसका सीधा आशय यह कि जिस तरह का खानपान मनुष्य ग्रहण करेगा उसके गुण दोषों के अनुसार ही उसकी सोच का निर्माण होगा। अगर मनुष्य सात्विक भोजन ग्रहण करेगा तो उसमें स्वाभाविक रूप से दया, प्रेम और अहिंसा के भाव आयेंगे। यदि वह तामसिक पदार्थों का भक्षण और सेवन करेगा तो उसकी मूल प्रवृत्ति में क्रोध, हिंसा और घृणा के भाव स्वयं ही आयेंगे। इस विषय में किसी तर्क वितर्क की गुंजायश नहीं है भले ही कहने वाले कुछ भी कहते रहें। जैसे गुण हम बाहर से अपने अंदर ग्रहण करेंगे वैसे ही बाहर विसर्जन भी होगा।
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