इस संसार में हर जीव की देह में चित्त होता है। मनुष्य में बुद्धि और विवेक
अधिक होने से चित्त भी वैसा ही चंचल होता है।
यह चित्त या मन भोग की तरह सहजता से आकर्षक होता है और सांसरिक विषयों के
प्रति रुझान अधिक होने से मनुष्य को अध्यात्मिक साधना का अवसर नहीं देता। देखते देखते समय निकल जाता है। देह जब थकने लगती है तो मन में चिंता और भय का
भाव बढ़ जाता है। भौतिकता का आकर्षण आज
नहीं तो कल समाप्त होना है और अध्यात्मिक साधना के अभाव में मन उदासी का भाव घर कर
लेता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
------------------भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनी चञ्चला आयुर्वायुविघट्टिताब्जपटलीलीनाम्बुवद् भङ्गुरम्।लीला यौवनलालसास्तनुभृतामित्याकलव्य योग धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विदध्वं बृधाः।।हिन्दी में भावार्थ-भोग से जुड़े हर विषय की आयु बादल की कड़कती विद्युत के समान ही क्षणिक होती है। मनुष्य जीवन भी कमल के पत्ते पर थिरकती बूंदों के समान है जो किसी भी क्षण गिर जाती हैं। तृष्णा भी अस्थिर है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि इन सभी का हिसाब लगाये और चित्त को स्थिर कर योग साधना से परब्रह्मा का चिंत्तन करे।
भोग से
रोग होते हैं। योग तथा ज्ञान के अभ्यास से ही मनुष्य भौतिक विषय की क्षणिक आयु और अध्यात्मिक अभ्यास
के प्रभाव को समझ सकता है। आज जब भौतिकता
ने मानव जीवन में अस्थिरता, तनाव
और भय का जो भाव पैदा किया है उसे योगाभ्यास से ही दूर किया जा सकता है। योगाभ्यास
एक यज्ञ है जिसमें प्राणायाम और ध्यान से नैसर्गिक ऊर्जा का निर्माण होने के साथ
ही निरंकार परब्रहम के दर्शन का अनुभव भी होता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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