हमारे देश में धर्म के नाम पर जितना
भ्रम है अन्यत्र कहीं है। श्रीमद्भागवत गीता
में यज्ञों के दो प्रकार बताये गये हैं-एक द्रव्यमय यज्ञ दूसरा ज्ञान यज्ञ! द्रव्यमय यज्ञ का आशय यही है कि भौतिक पदार्थों
के माध्यम से परमात्मा का स्मरण किया जाये। ज्ञान यज्ञ का आशय यह है कि परमात्मा को
तत्व से जानकर उसका स्मरण किया जाये। देखा
यह गया है कि हमारे देश के कथित घार्मिक ठेकेदारों ने धर्म के नाम पर अपने व्यवसाय
चमकाने के लिये द्रव्यमय यज्ञ का ही प्रचार किया करते है। स्थिति यह है कि अनेक जगह कथित रूप से ज्ञानयज्ञ
भी होते हैं पर उसमें लोगों को दान दक्षिणा देकर पैसे की उगाही की जाती है। उनसे द्रव्य
का दान करने के लिये कहा जाता है। स्पष्टतः
ज्ञान का यह एक तरह से व्यापार है।
धर्म के निर्वाह के दो रूप हैं- यम
और नियम। यमों का पालन किया जाये तो धर्म स्वतः
ही फल प्रदान करने लगता है। यम में अहिंसा,सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य तथा
अपरिग्रह का पालन करना होता है। यमों को धारण
करना बाहर दिखता नहीं है इसलिये उसके आधार पर पाखंड करना कठिन है। जबकि नियमों का पालन बाहर नजर आता है और उससे दूसरे
की प्रशंसा पाने का मोह पूरा हो सकता है इसलिये लोग उनका पालन करते दिखना चाहते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यमान्स्सेवेत सततं न नित्यं नियमानबुधः।
यमान्यतन्यकुर्वाणो नियमान्केवलान्भजन्।।
हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य नियमों की उपेक्षा
कर यमो का पालन करना ही वास्तविक धर्म है। यमों की बजाय जो मनुष्य
नियमों के पालन की तरफ जो ध्यान देता
है वह अधिक समय तक सफलता प्राप्त न करते हुए
शीघ्र पतन को प्राप्त होता है।
हमारे यहां धर्म के नाम पर इधर उधर
जाकर परमात्मा के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों पर उनके दर्शन करने की प्रवृत्ति अधिक
देखी जाती है। दरअसल जिनके पास पैसा और समय होता है वह उसे व्यय करने को मार्ग ढूंढते
हैं। ऐसे लोग धर्म का मतलब नहीं जानते पर धार्मिक
दिखना चाहते हैं। इसलिये पर्यटन के नाम पर
रमणीक स्थलों पर मंदिरों के दर्शन करने जाते हैं।
इनमें ऐसे भी शामिल लोग हैं जो अपने ही शहरों के मंदिरों पर जाना तो दूर घर
में ही परमात्मा के स्वरूपों की मूर्तियों पर मत्था तक नहीं टेकते। मत्था टेकने की
बात तो छोड़िये, अनेक लोग मूर्ति बाज़ार से खरीदकर अपने घर की दीवार पर टांगते
हैं या फिर अलमारी में रखते हैं पर फिर उसे देखते तक भी नहीं है। ऐसे लोग दूर शहरों
में मंदिरों में भगवान के दर्शन करने का दावा
इस तरह करते हैं कि वह प्रथ्वी के अकेले ऐसे वासी हैं जिनको साक्षात भगवान ने दर्शन
दिये। यह धर्म के नाम पर पाखंड के अलावा कुछ
नहीं है। ऐसा करके दूसरों के सामने आत्मप्रवंचना करना धर्म नहीं होता। धर्म वह विषय
है जिसमें संलिप्त होने से स्वयं को प्रसन्नता का आभास हो।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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