साम्यवादी
विचारधारा के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने कहा था कि इस विश्व का सबसे बड़ा सत्य रोटी
है। हमारे देश में उनके अनुयासी उनके इस वचन
को विश्व की एक बहुत बड़ी खोज मानते हैं जबकि हमारे अध्यात्मिक विद्वानों ने यह बात
तो बहुत पहले ही बता दी थी। यह अलग बात है
कि कार्ल मार्क्स के शिष्य अंग्रेंजी में लिखे गये उनके पूंजी ग्रंथ के अलावा किसी
अन्य भारतीय विद्वान की बात पढ़ना ही नहीं चाहते। वह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों को साम्प्रदायिक
तथा जातिवादी व्यवस्था का पोषक मानते हुए कार्ल मार्क्स को विश्व का इकलौता धर्मनिरपेक्ष
सिद्धांतों का पोषक प्रचारित करते हैं।
हमारा अध्यात्मिक
दर्शन न केवल भोजन को मनुष्य के लिये बल्कि हर जीव के लिये एक सत्य के रूप में स्वीकारता
है। इतना ही नहीं हमारा दर्शन हर मनुष्य को श्रम से धन कमाने के साथ ही भेाजन अपने
हाथ से बनाने का संदेश भी देता है। उससे भी
आगे जाकर हमारा अध्यात्मिक दर्शन श्रमिकों और गरीबों की सहायता की निष्काम भाव से मदद
करने की बात कहता है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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चारा प्यारा जगत में, छाला हित कर लेय।
ज्यों ‘रहीम’ आटा लगे, ज्यों मृदंग
स्वर देय।।
सामान्य हिन्दी भाषा
में भावार्थ-इस संसार में भोजन सभी जीवों
को प्यारा है। इसमें स्वाद तभी आता है जब परिश्रम कर उसे जुटाया जाये। जिस तरह मृद्रग
पर आटे की थाप पड़ने से मधुर स्वर होता है उसी तरह अपने मेहनत के कमाये तथा बनाये भोजन
में स्वाद आता है।
अंग्रेजी
संस्कृति तथा शिक्षा के प्रभाव के चलते हमारे
देश में शारीरिक तथा अकुशल श्रम को हेय मान लिया गया हैं। हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी
करना चाहता है। गृहस्थ स्त्रियों के प्रति समाज में एक नकारात्मक भाव बन गया है। घर पर रोटी बनाने, कपड़े धोने, और बर्तन मांजने जैसे कामों
को छोटा बताकर शिक्षित स्त्रियों को उससे विमुख करने का प्रयास भी हो रहा है। एक शोध
के अनुसार भारत में गृहस्थी का काम करने वाली स्त्रियों के कार्यों का अगर मुद्रा में
मूल्यांकन किया जाये तो वह अपने पुरुषों से ज्यादा कमा रही है। इसका सीधा मतलब यह है कि पुरुष अगर उन कामों के
लिये कहीं दूसरी जगह या दूसरे पर अपनी घरेलु सुविधाओं के लिये धन व्यय करे तो उसे अपनी कमाई से अधिक भुगतान करना
होगा। यह कहा जा सकता है कि इस तरह उसके घर
में काम करने वाली स्त्री उससे अधिक कमा रही है।
स्थिति यह है कि कार्ल मार्क्स के शिष्य इस तरह घर का काम करने वाली स्त्रियों
को हेय मानते हुए उनको आजादी के नाम पर बाहर आकर काम करने की प्रेरणा देते हैं। मनुष्य
के लिये सर्वोत्म सत्य यानि रोटी का सृजन करने वाली नारियों को इस तरह हेय मानना अपने
आप में ही अनुचित विचार लगता है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रमाणिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत
गीता में भी अकुशल श्रम को हेय मानना तामस
बुद्धि का प्रमाण माना गया है। कहने का अभिप्राय
यही है कि हमें अपने शरीर से अधिक काम लेना चाहिये ताकि वह आर्थिक रूप से उत्पादक होने
के साथ ही स्वस्थ भी रहे। इसी में ही जीवन
का आनंद है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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