हम देख
रहे हैं कि समाज में अब बुराई और भलाई की पहचान
के साथ पाप पुण्य के कर्म के चयन का लोगों
में ज्ञान नहीं रहा। अक्सर क्रिकेट में फिक्सिंग की चर्चा होती है। अनेक युवा क्रिकेट
खिलाड़ियों को मैचों के लिये अच्छा खासा पैसा
मिलता है फिर भी वह अधिक लालच में सट्टेबाजी के चक्कर में फंस जाते हैं। सभी जानते
हैं कि कथित सट्टेबाज अपना हित साधने के लिये पैसे का पिंजरा हाथ में लिये फिर रहे
है। फिर भी कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों ने उनके
इशारों पर नाचकर अपना पूरा भविष्य ही दाव पर
लगा दिया। यह सब देखकर हैरानी होती है। पकड़े
गये खिलाड़ियों न केवल मैचों के लिये अच्छा पैसा मिल रहा था बल्कि उनको प्रतिष्ठित संस्थानओं
में सेवा का अवसर भी मिला। सब कुछ उनको क्रिकेट
में बेहतर प्रदर्शन के कारण मिला पर अधिक पैसों की लालच में वह उसे भूल जाते हैं। पकड़े जाने के बाद उन्हें अपनी गलती पर पछतावा भी
होता है। हालांकि अनेंक लोग इस पर उनकी निंदा
कर रहे हैं पर इस विषय पर कोई चर्चा नहीं कर रहा कि आखिर उन्होंने ऐसा किया क्यों?
अगर हम
कहें कि आजकल समाज में संस्कारहीनता की स्थिति है तो यह भी कहना पड़ता है कि संत कवि दादूदयाल ने तो बरसों पहले ही
समाज की दीवानगी की स्थिति बता दी। उस समय
समाज में पाश्चात्य संस्कृति का प्रचलन नहीं था।
तब हमारे अपने मूल संस्कार अपने ही
समाज में बसे थे। इसके बावजूद लोगों में सच झूठ और विष अमृत की पहचान नहंी थी
जिसका उल्लेख अनेक संत कवि करते हैं। ऐसे
में जब अंग्रेजी संस्कृति के साथ ही वहां के खेलों को भी समाज में स्थापित किया गया
है तब उनके कुसंस्कारों से बचना कठिन ही है।
संत कवि दादू दयाल ने कहा है कि
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झूठा साचा करि लिया, विष अमृत जाना।
दुख कौ सुख सब कोइ कहै, ऐसा जगत दिवाना।।
सामान्य
भाषा में भावार्थ-पूरा संसार एक तरह से दीवाना है। झूठ को सच और विष को अमृत मानता है। दुख को ही
सुख समझकर प्रसन्न होता है।
‘दादू’ विषे विकार सौं, जब लग मन राता।
तब लग चीत न आवई, त्रिभुवन पति दाता।।
सामान्य भाषा में भावार्थ-जब मन में विकार और विष बढ़ता
है तब कोई भजन नहीं करता। ऐसे में त्रिलोकपति
परमात्मा की हªªदय में सहज अनुभूति नहीं की जा सकती।
हम
क्रिकेट खिलाड़ियों के पकड़े जाने पर कितनी भी बहस कर लें पर इस तरह की सट्टेबाजी रुकने
वाली नहीं है। दरअसल संकट किन्हीं व्यक्तियों का नहीं है वरन समाज की सोच का है। पहले तो किसी के पास पैसे आने पर उसके स्तोत्रों
का पता लगाया जाता था पर अब समाज ने इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया है। अब जिसके पास पैसा है सभी लोग उसके सामने साष्टांग
दंडवत् करने के लिये मरे जाते हैं। दूसरी बात
यह है कि पहले आमतौर से परिवार के बड़े सदस्य गाहे बगाहे अपने से छोटे सदस्यों को धर्म
के अनुसार पैसा कमाने का संदेश देते थे। अच्छे बुरे की पहचान का तरीका बताते थे। अब
हालत यह है कि बच्चों में धर्म के नाम पर केवल पूजा पाठ करने को कहा जाता है बाकी कोई
सिद्धांत समझाया नहंी जाता। ऐसे में आजकल के
युवा चाहे जिसे क्षेत्र में कार्यरत हों उनके अनैतिक आचरण में फंसने की संभावना प्रबल
रहती है। उनके पकड़े जाने पर पर उनकी निंदा
तो की जा सकती है पर जिस मानसिकता के चलते वह ऐसा करते हैं,उसका अध्ययन करना भी आवश्यक
है। वरना सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा। आखिर सच
झूठ, नैतिक
अनैतिक तथा विष अमृत की पहचान जिसे न हो उससे हमेशा ही सदाचरण की उम्मीद कैसे की जा
सकती है?
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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