सामान्य मनुष्य की यह प्रवृत्ति रहती है कि वह उच्च पदस्थ, धनवान तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचे कथित सिद्ध पुरुषों की चाटुकारिता
इस उद्देश्य से करता है कि पता नहीं कब उनमें काम पड़ जाये? जबकि शिखर पुरुषों की भी यह प्रकृत्ति है कि वह अपनी सुविधानुसार ही सामान्य
लोगों को लाभ देने का अवसर प्रदान करते हैं।
वह दरियादिल नहीं होते पर समाज उनसे ऐसी अपेक्षा सदैव किये रहता है कि वह
कभी न कभी दया कर सकते हैं। माया के पुतले
इन शिखर पुरुषों को अनावश्यक ही प्रतिष्ठा और सम्मान मिलता है जिस कारण हर कोई उन
जैसा स्तर पाने की कामना करता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि------------------फलमलशनाय स्वादु पानाय तोयं।क्षितिरपि शयनार्थ वाससे वल्कलं च।नवधन-मधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणामविनयमनुमन्तुं नौतसहे दुर्जनाम्।।हिन्दी में भावार्थ-खाने के लिये पर्याप्त धन, पीने के लिये मधुर जल, सोने के लिये प्रथ्वी और पहनने के लिये वृक्षों की छाल है तो हमारी नई ताजी संपदा की मदिरा पीकर मस्त हुए दुर्जनों की बदतमीजी सहने की कोई इच्छा नहीं है।
योगी,
सन्यासी और ज्ञानी इस मायावी संसार के सत्य को जानते
हैं। इसलिये ही जितना मिले उससे संतोष कर
लेते हैं। कहा भी जाता है कि संतोष ही
सबसे बड़ा धन है जबकि असंतोष के वशीभूत होकर लोग न केवल अनुचित प्रयास करते हैं
वरन् अनावश्यक ही धन, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों के दरवाजे
अनावश्यक नत मस्तक होते हैं। कालांतर में
असंतोष से प्रेरित होकर किये गये प्रयास उन्हें भारी निराश करते हैं। हर व्यक्ति
को एक बात याद रखना चाहिये कि उच्च पद, धनवान तथा प्रतिष्ठा के
शिखर पर बैठे लोग कुछ देने के लिये हाथ
जरूर उठाते हैं पर वह उनकी सुविधानुसार सकाम प्रयास होता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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