हम जब किसी राष्ट्र की
स्थिरता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि उसमें सक्रिय सामाजिक समूहों में
भी स्थिरता होना चाहिये। समाज की परिवारों
और परिवारों की स्थिरता व्यक्ति
में अंतर्निहित होती है। हम आज जब देश की
स्थिति को देखते हैं तो राष्ट्र की स्थिरता को लेकर भारी चिंत्तायें व्याप्त हैं।
इधर हमारे यहां विकास के दावे भी किये जा रहे हैं उधर राष्ट्र में व्याप्त सामाजिक,
आर्थिक तथा धार्मिक तनावों की चर्चा भी
हो रही है। यह विरोधाभास हमारी उन नीतियों का ही परिणाम है जिसमें किसी मनुष्य के
लिये अर्थार्जन ही एक श्रेष्ठ और अंतिम
लक्ष्य माना जाता है। अर्थार्जन में भी
केवल पेट की रोटी तक ही सीमित लक्ष्य माना गया है। यह आज तक समझा नहीं गया कि उदर की भूख की शांत
होने के बाद भी मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी
सीमित नहीं रहते। सभी जीवों मे नरमादा होते हैं और जो कहीं न कहीं अगली
पीढ़ी का सृजन करते हैं। यह कामुक
प्रवृत्ति सभी में होती हैं पर मनुष्य को उसके लिये भी अर्थ का सृजन संचय के
लिये करना पड़ता है। पशु पक्षी विवाह
पद्धति नहीं अपनाते जबकि मनुष्य को इसे सामाजिक बाध्यता के रूप में स्वीकार करना
ही पड़ता है। मनुष्य की संचयी प्रवृत्ति का ऐसे अर्थशास्त्री कतई अध्ययन नहीं करते
जिनका लालन पालन धनपति करते हैं।
हमारे देश के कुछ विद्वान
अर्थशास्त्री गरीबी रेखा की सीमा के लिये एक राशि तय करते हैं। उसमें वह मनुष्य के
खाने और कपड़े का ही हिसाब रखते हैं। उनका मानना है कि एक मनुष्य को खाने और कपड़े
के अलावा जिंदा रहने के लिये कुछ अन्य नहीं चाहिये। वातानुकूलित कक्षों में उनके इस चिंत्तन को
मजाक ही माना जाता है। वह मनुष्य में
व्यापत उस संचयी प्रवृत्ति का आभास होते हुए भी तार्किक नहीं मानते जिसमें वह
विश्ेाष अवसरों पर व्यय करने के लिये बाध्य होता है। वह मनुष्य को केवल एक पशु की
श्रेणी में रखकर अपनी राय देते हैं। इस
तरह के चिंत्तन ने ही देश की अर्थव्यवस्था को भारी निराशाजनक दौर में पहुंचा दिया
है। महंगाई, बेरोजगारी तथा अपराध
देश में बढ़ते जा रहे हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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जलान्नायुधयन्त्राछृर्य धीरयोधरधिष्ठितं।
निवासाय प्रशस्यन्ते भमुजां भूतिच्छितां।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जल, अन्न, शस्त्र और यन्त्रों से सम्पन्न, धीर वीर योद्धाओं के साथ ही योग्य मंत्रियों तथा आचार्यों से रक्षित दुर्ग की ही महत्ता होती है।
एक तरह से हम देश में शुद्ध
रूप से पूंजी पर आधारित अर्थव्यवस्था का
एक विकट रूप देख रहे हैं जिसमें मानवीय संवेदनाओं के साथ ही संस्कृति, संस्कार और परंपराओं के निर्वाह की बाध्यता को
कोई स्थान नहीं है। सच बात तो यह है कि अमीर और गरीब के बीच स्थित एक समन्वित कड़ी
मध्यम वर्ग रहा है जिसकी परवाह किसी को नहीं है।
यह लड़खड़ा रहा है और इससे जो समाज में अस्थिरता का वातावरण है वह अत्यंत
चिंत्ताजनक है। यह वर्ग अन्य दोनों वर्गों
की बौद्धिक सहायता करने के साथ ही अपने श्रम के साथ ही सक्रिय भी रहता है।
हम यहां इस वर्ग के लिये कोई
याचना नहीं कर रहे बल्कि इतना कहना चाहते हैं कि देश की स्थिरता में इसी वर्ग का
अन्य दोनों की अपेक्षा कहीं अधिक योगदान रहता है। अगर देश में समाज में निजी पूंजी
का प्रभाव बढ़ा और मध्यम वर्ग केवल कंपनियों की नौकरी के इर्दगिर्द ही सिमटा तो
कालांतर में ऐसे संकट उत्पन्न होंगे जिसकी कल्पना तक हम अभी नहीं कर सकते। इसलिये देश के आर्थिक रणनीतिकारों को इस तरफ
ध्यान जरूर देना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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