भारत में लोकसभा चुनाव 2014
के लिये कार्यक्रम घोषित किये जा चुका है।
शुद्ध रूप से राजसी कर्म में प्रवृत्त लोगों को लिये एक तरह से यह चुनाव
कुंभ का मेला होता है। हमारे अध्यात्मिक
दर्शन के अनुसार कोई मनुष्य पूर्ण रूप से
सात्विक या तामसी प्रवृत्ति का हो अपने
जीवन निर्वाह के लिये अर्थार्जन का कार्य करना ही पड़ता है जो कि एक तरह से राजसी
प्रकृत्ति का ही होता है। दूसरी बात यह भी
है कि राजसी कर्म करते समय मनुष्य को राजसी प्रकत्ति का ही अनुसरण करना चाहिये
इसलिये ज्ञानी या सात्विक प्रकृत्ति के व्यक्ति में अर्थार्जन के लिये उचित साधन
होने पर उसकी क्रियाओं में दोष देखकर यह मान लेना कि वह अपनी मूल प्रकृत्ति से दूर
हो गया, यह विचार धारण करना गलत
होगा। ज्ञानी और सात्विक व्यक्ति राजसी
कर्म करने के बावजूद उसमें अपने मूल भाव का तत्व अवश्य प्रकट करते हैं। इसके
विपरीत जो राजसी प्रकृत्ति मे हैं वह राजसी कर्म करते समय किसी सिद्धांत का पालन
करें यह आवश्यक नहीं होता। उनके लिये अपना
ही लक्ष्य सर्वोपरि होता है। देखा जाये तो सामान्य गृहस्थ हो या राजकीय कर्म करने
वाला विशिष्ट व्यक्ति दोनों का लक्ष्य अर्थोपार्जन करना ही होता है। सामान्य गृहस्थ जहां अपनी गृहस्थी का राजा होता
है वहीं राजकीय व्यक्ति को किसी उपाधि की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। राजकीय कर्म तो राजसी प्रकृत्ति से ही किये जा
सकते हैं इसलिये वहां पूर्ण सैद्धांतिक शुचिता के पालन की अनिवार्यता की आशा
व्यर्थ ही की जाती है।
भृर्तहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची क्ररीति चन्द्रो विकासयति
कैरवचक्रवातम्।।
नाभ्यार्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति संतः स्वयं परहिते
विहिताभियोगाः।।
हिन्दी में
भावार्थ-सूर्य बिना याचना
किये ही कमल को खिला देता है, चंद्रमा
कुमुदिनी को प्रस्फुटित कर देता है। बादल भी बिना याचना के ही पानी बरसा देते हैं।
इसी तरह सत्पुरुष अपनी ही अंतप्रेरणा से ही परोपकार करते हैं।
लोकतंत्र में चुनावों के लिये
उतरने वाले लोग आम जनमानस को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनेक प्रकार के प्रयास
करते हैं। अनेक तरह के वादे तथा आश्वासन
देने के साथ ही वह आमजनों को धरती पर ही स्वर्ग दिखाने का सपना दिखाते हैं। एक तरह
से देखा जाये तो लोकतांत्रिक राजकीय प्रणाली ने विश्व में पेशेवर शासकों की पंरपरा
स्थापित की है। प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति या अन्य कोई जनप्रतिनिधि वह खजाने
से अपने व्यय के लिये प्रत्यक्ष रूप से धन नहीं ले सकता वरन् वह एक सेवक की तरह
उसे वेतना प्रदान किया जाता है। यह अलग
बात है कि जितना बड़ा राजकीय पद हो वहां विराजमान व्यक्ति को राज्य के धनपति,
साहुकार, तथा उद्योगपति उसी के स्तर के अनुसार भेंट देने के
लिये तत्पर रहते हैं जैसे पहले राजाओं को मिलते थे। हमारे ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण है जब राजपद
धारण करने पर राज्य के जमीदार, साहुकार
तथा धनवान अपने राजा को भेंट देते थे। इस
तरह की भेंट लेना कम से कम हम जैसे अध्यात्मिक दृष्टि से कोई गलत नहीं है। यह अलग बात है कि राजपद पाने के लिये उत्सुक लोग
स्वयं को एक त्यागी व्यक्ति के रूप में प्रचारित कर जनमानस का हृदय जीतने का
प्रयास करते हैं। त्याग का भाव सात्विक
कर्म का परिचायक है जिसकी उपस्थिति राजसी कर्म
में नहीं की जा सकती।
यही से आधुनिक लोकतंत्र में
अनेक नाटकों का प्रारंभ हो जाता है। इधर उदारीकरण ने निजी क्षेत्र को अधिक अवसर
प्रदान किये हैं। तेल से लेकर खेल तक और
संचार साधनों से लेकर प्रचार माध्यमों तक पूंजीपतियों का एकछत्र राज्य हो गया है।
मनोरंजन कार्यक्रमों में फूहड़ कामेडी तो समाचारों में नाटकीय घटनाक्रम को महत्व
मिल रहा है। कभी कभी तो यह लगता है कि
फिल्म के अभिनेता फिल्म या धारावाहिक में पटकथा के आधार पर जिस तरह अभिनय करते हैं
उसी तरह खिलाड़ी भी मैच खेलते हैं। उससे
ज्यादा मजेदार बात यह है कि अनेक लोग तो केवल इसलिये समाज सेवा या राजकीय उपक्रम
इस तरह करते हैं ताकि उनको प्रचार माध्यमों में स्थान मिलता रहे। हालांकि प्रचार माध्यम उनकी मजाक उड़ाते हैं पर
फिर भी उनके बयानों पर बहस और चर्चा करते हैं जिसके दौरान उनके विज्ञापनों का समय
खूब पास होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रचार प्रबंधक और बाज़ारों के स्वामियों
का कोई संयुक्त उपक्रम हैं जो इस तरह के नाटकीय पात्रों का सृजन कर रहा है जिससे
समाज अपनी समस्याओं को भूलकर मनोरंजन में लीन रहे। कोई जनविद्रोह यहां न फैले वरन् यथास्थिति बनी
रहे।
अब तो समाचार और नाटकों में
कोई अंतर ही नहीं दिख रहा। जैसे जैसे यह
चुनाव पास आयेंगे उसी तरह नाटकीय का दौर बढ़ेगा यह बात प्रचार माध्यमों के प्रबंधक
स्वयं कह रहे हैं। योग तथा अध्यात्मिक साधकों ने जिज्ञासावश नहीं वरन् कौतूहल से
इस नाटकीयता को देखें। यह नाटकीय लोग देश
और समाज की फिक्र करते दिखते हैं। आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जनोन्मुखी
बनाने का दावा करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज सेवा का व्रत इस तरह लिया है
जिसमें चंदा और भेंट मिलती रहे। हम यह समझ लेना चाहिये कि परोपकारी लोग कोई प्रचार
नहीं करते। वह कोई योजना नहीं बनाते। सबसे
बड़ी बात यह है कि वह कोई दावा नहीं करते।
हमारा देश तो वैसे भी भगवत्कृपा से संपन्न है। इसे कोई संपन्न क्या बनायेगा? गरीबों को कोई अमीर बना नहीं सकता और कोई
लालची अमीरों के आगे हाथ फैलाने से कोई बच नहीं सकता। कुछ लोग गरीब हैं पर वह भिखारी नहीं है जिसे यह
लोग संपन्न बनाने का दावा करते हैं। गरीब अपने श्रम पर जिंदा हैं और इनमें से
अधिकतर जानते हैं कि उनके भले का नारा लगाकर कोई भी राजकीय पद प्राप्त कर लें पर
फायदा देने वाला नहीं है। अंततः उनको अपने
श्रम का पैसा किसी धनी से ही मिलता है इसलिये उसके मिटने की कामना भी वह नहीं
करते। राज्य बना रहे यही कामना उनकी भी रहती है ताकि उनका जैसा भी घर चल रहा है
वैसे चलता भी रहे। परोपकार का दावा करने वालों से वह भीख मांगने नहीं जाते यह अलग
बात है कि इस तरह के ढोंग में लीन लोगों को अपने लोकप्रिय होने की खुशफहमी प्रचार
की वजह से हो जाती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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