पूरे विश्व समाज में सोने को अत्यंत महंगी धातु माना जाता है।
हैरानी की बात यह है कि सोना किसी का पेट न भर सकता है न गले की प्यास
बुझा सकता है फिर भी लोग उसे पाने को आतुर रहते है। खासतौर से महिलाओं को
सोने के आभूषण पहनने का शौक रहता है। अपने आप में यह आश्चर्य की बात है
कि जिस अन्न से मनुष्य का पेट भरता है उसे कोई सम्मान से नहीं देखता। इतना
ही नहीं जिस अन्न को प्रसाद मानकर खाना चाहिये लोग उसे मजबूरी समझ कर खाते
हैं क्योंकि उसके बिना शरीर नहीं चल सकता। अधिकतर मनुष्य भोजन कर शरीर
इसलिये चलाना चाहते हैं कि अधिक से अधिक दैहिक रूप सक्रिय होकर धन संचय कर
सकें। इस द्रव्य धन का सर्वश्रेष्ठ भौतिक रूप सोना ही है। आज के विश्व
समाज में सोने का उपयोग कागजी मुद्रा को भौतिक रूप में स्थिर रखने के लिये
किया जाता है। इसी सोने के पात्र में जीवन का सच छिप जाता है। यह संसार
बिना अधिक धन संपदा, भूमि तथा अन्य भौतिक साधनों के भी स्वर्ग हो सकता है
यह तथ कोई सिद्ध या ज्ञान साधक ही समझ सकता है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
---------------
हिरण्मपेन पवित्र सत्यस्थापिहितं सुखम्।
हिन्दी में भावार्थ-सोने के पात्र से सत्य ढका हुआ है।
---------------
हिरण्मपेन पवित्र सत्यस्थापिहितं सुखम्।
हिन्दी में भावार्थ-सोने के पात्र से सत्य ढका हुआ है।
वापुरनिलमृतथेदं भस्मान्थमशरीरम्।
क्रततो स्मद।।
क्लिवे स्मर।
कृथ्स्मर।।
हिन्दी में भावार्थ-प्राण अपार्थिव अमृत हैं जबकि यह शरीर अंततः भस्म हो जाता है। अतः सर्वरक्षक आत्मा का स्मरण कर। अपनेअंदर स्थित कर्म करने वाला पुरुष का स्मरण कर।
क्रततो स्मद।।
क्लिवे स्मर।
कृथ्स्मर।।
हिन्दी में भावार्थ-प्राण अपार्थिव अमृत हैं जबकि यह शरीर अंततः भस्म हो जाता है। अतः सर्वरक्षक आत्मा का स्मरण कर। अपनेअंदर स्थित कर्म करने वाला पुरुष का स्मरण कर।
हमारी देह में विराजमान ही आत्म ही वास्तविक स्वर्ण है। यही वह अमृत
है जिसका स्मरण करना चाहिये। निरंतर बहिर्मुखी होने से मनुष्य बाह्य
विषयों में सिद्धहस्त हो जाता है पर आंतरिक विषयों के बारे में उसका अज्ञान
अंततः उसके लिये घातक होता है। आजकल लोगों के पास भौतिक साधनों का जमावड़ा
तो हो गया है पर फिर भी कोई खुश नहीं दिखता। मानसिक तलाव के चलते लोग
राजरोगों का शिकार होते जा रहे हैं। समस्या यह भी है कि शारीरिक रूप से
लोग अपने विकारों की चर्चा तो कर सभी को बता देते हैं पर उससे उनकी
मानसिकता में जिंदगी के प्रति उत्पन्न नकारात्मक भाव की अनुभूति
प्रत्यक्ष नहीं दिखती पर उनका आचरण तथा व्यवहार पर उसका दुष्प्रभाव अवश्व
ही पड़ता है। यही कारण है कि लोगों को दूसरों के द्वंद्व में मनोरंजन, पीड़ा
में सनसनी और व्यसनों में ताजगी का अनुभव हेाता है। आध्यात्कि विषय पर
चर्चा उनके लिये केवल समय नष्ट करना ही होता है। अपने मन के वेग से भौतिक
संपदा के पीछे भाग रहे लोग अपनी आत्मा से साक्षात्कार तो दूर उसका विचार तक
नहीं करते।
जिन लोगों के हृदय में शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ् रहने की इच्छा है उनको अंतमुखर््ी होकर योगासन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप में अवश्य लगना चाहिये। अंतमुर्खी होकर अध्ययन करने से संसार के विषयों में स्वतः प्रवीणता आती हे पर बहिमुर्खी रहकर सांसकिर विषयों में लिप्त रहने से अध्याित्मक ज्ञान नहीं आ सकता। जब भौतिकता से मोहभंग होता है तब अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मनुष्य निराशा, हताशा और मानसिक विकृतियों का शिकार होकर अपना जीवन दाव पर लगा देता है।
जिन लोगों के हृदय में शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ् रहने की इच्छा है उनको अंतमुखर््ी होकर योगासन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप में अवश्य लगना चाहिये। अंतमुर्खी होकर अध्ययन करने से संसार के विषयों में स्वतः प्रवीणता आती हे पर बहिमुर्खी रहकर सांसकिर विषयों में लिप्त रहने से अध्याित्मक ज्ञान नहीं आ सकता। जब भौतिकता से मोहभंग होता है तब अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मनुष्य निराशा, हताशा और मानसिक विकृतियों का शिकार होकर अपना जीवन दाव पर लगा देता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment