आमतौर से सामान्य मनुष्य दोहरा चरित्र जीने को चतुराई समझते हैं। स्थिति यह हो गयी है कि अब उस मित्र या रिश्तेदार पर भी यह भरोसा करना संभव नहीं रहा जिनसे प्रतिदिन का संपर्क होता है। सामने सभी प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा करने के लिये सभी तत्पर रहते हैं। अधिकतर लोग अपनी वाणी से किसी की प्रशंसा करना तो दूर निंदा करने में अपनी वाणी का गौरव समझते हैं। इतना ही नहीं जिनसे हम अपने हित की कामना करते हैं वही पीठ पीछे प्रहार कर अपना दोगलापन दिखाते हैं। हर किसी को अपने संपर्क क्षेत्र में महान बनने की कामना रहती है पर त्याग कोई नहीं करना चाहता। अपनी आंखों से अपने ही मित्र, पड़ौसी और रिश्तेदार का अनिष्ट देखने, कानों से अप्रिय वचन सुनने और वाणी से निंदा करने की मन में इच्छा सभी की है पर सामने हितकर बाते कर हितचिंतक होने का दावा करते हैं। टूटते भारतीय समाज को विकसित देखने की इच्छा करने वाले बुद्धिमानों को चाहिए कि वह भारतीय अध्यात्म का मार्ग अपनायें। अंग्रेजी और पाश्चात्य साहित्य से भारतीय जनमानस को सात्विक मार्ग पर रखना कठिन है। जिस तरह ठंड की रजाई गर्मी में नहीं ओढ़ी जाती उसी तरह आयातित विचाराधाराओं से समाज को चलाकर उसमें चमक देखना मूर्खता है। विदेशी नुस्खे भारत में नहीं चल सकते। चलाओगे तो समाज को टूटा ही पाओगे।
सामवेद में कहा गया है कि
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म ते रसस्य मत्सत द्वयविनः।
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म ते रसस्य मत्सत द्वयविनः।
हिन्दी में भावार्थ-दोहरा आचरण करने वाले आनन्दित नहीं होते।
सुकत्या महान् अभ्यवर्धथाः।
हिन्दी में भावार्थ-शुभ कर्म से ही तुम महान बन सकते हो।
विचर्षणिः विश्वाः मृधः अभ्यकमीत्।
हिन्दी में भावार्थ-विशेष ज्ञानी समस्त शत्रुओं का पराभव करता है।
पाश्चात्य संस्कृति ने जिस उपभोग की प्रवृत्ति को बढ़ाया है वह मनुष्य को केवल स्वार्थ की पूर्ति तक सीमित कर देती है जबकि समाज में सम्मान पाने के लिये यह जरूरी है कि परोपकार किया जाये। यह कोई करना नहीं चाहता इसलिये स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिये लोग अपने हाथों से परोपकार करने के काल्पनिक दावे करते हैं। चंदा लेकर दान करते हैं और अपने मुख से समाजसेवक होने की उपाधि लगाते हैं। समाज का पराभाव हो रहा है यह अलग बात है कि कुछ लोग उसके उत्कर्ष होने का प्रचार करते हैं।
हमारे देश में अपनी संस्कृति और संस्कारों के महान होने की बातें होती हैं। यह सब बातें स्वयं को धोखा देने के लिये हैं। वर्तमान समाज कैसा है यह हम सभी जानते हैं। फिर भी यह कहना गलत है कि सभी लोग अज्ञानी हैं। अगर ऐसा होता तो हमारा अध्यात्मिक ज्ञान निरंतरता से विश्व में नहीं फैलता। अनेक ज्ञानी हैं जो बिना लोभ और लालच के भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की ज्योति को प्रकाशनमान बनाये रखते हैं। इसलिये उपभोग संस्कृति के नायकों की बजाय ज्ञान और संस्कारों का प्रवाह बनाये रखने वाले विद्वानों का अनुकरण करना चाहिए। तभी पतन की तरफ जा रहे भारतीय समाज को उत्कर्ष के मार्ग पर लाया जा सकता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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