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Tuesday, December 18, 2012

पतंजलि योग साहित्य-कूर्माकार नाड़ी में संयम रखने से स्थिरता आती है (patanjali yoga sahitya-koormakar nadi par mein sanyam rakhne se sathirta aate hai)

        भारतीय अध्यात्म दर्शन में योगासन, प्राणायाम और ध्यान ऐसे साधन माने गये हैं जिससे मनुष्य अपने जीवन को कलात्मक रूप से व्यतीत कर सकता है।  आधुनिक संसार में भौतिकतावाद से उकताये और सुस्ताये लोगों को अनेक कथित योग शिक्षकों ने अपने पेशेवराना अंदाज से आकर्षित किया है  पर सच तो यह है कि योग विद्या में पारंगत लोगों की कमी ही दिखती है।  आसन और प्राणायाम से देह और मन को लाभ होता है पर ध्यान से जो मनुष्य में पूर्णता आती है इसका ज्ञान अभी पूरी तरह प्रचारित नही किया गया है। 
         आजकल हम देखते हैं कि लोग भारी मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं।  जीवन पहले से कहीं अधिक संघर्षमय हो गया है।  आज के आधुनिक बुद्धिजीवी तो पतंजलि योग को विज्ञान मानने से ही इंकार करते हैं।  उनकी नज़र में पश्चिमी विचारधाराओं में भी व्यायाम का महत्व बताया गया है उसके कारण यह भारतीय योग विद्या कोई अनोखा विषय नहीं है।  यह अलग बात है कि हम पश्चिम के अंधानुकरण करते हुए यह भूल रहे हैं कि यूरोप और अमेरिका में भी लोगों के अंदर भारी मानसिक कुंठायें व्याप्त हो गयी हैं।  सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय अध्यात्म की घ्यान पद्धति को अब पश्चिम के लोग भी मानने लगे हैं। 
         जिस व्यक्ति के पास  ध्यान लगाने की कला होती है वह दूसरे का उद्धार करने वाला सिद्ध भले न हो पर उसमें कई ऐसी विशेषतायें आ ही जाती हैं जो उसे आम मनुष्य से अधिक प्रतिभाशाली बना देती हैं।  बहुत सहज लगने वाली यह कला तभी आ सकती है जब आदमी का संकल्प पवित्र होने के साथ ही उसे पाने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ हो।
पतंजलि योग में कहा गया है कि
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नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्।
       हिन्दी में भावार्थ-नाभिचक्र में ध्यान या संयम करने से पूरे शरीर का ज्ञान हो जाता है।
कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्ति।
        हिन्दी में भावार्थ-कण्ठकूप  (जिव्हा के नीचे एक तालू है जिसे जिव्हा मूल भी कहते हैं) में ध्यान या संयम करने से भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है।
कूर्मानाडयां स्वैर्यम्।
        हिन्दी में भावार्थ-कूर्माकार नाड़ी ( वक्षःस्थल के नीचे एक कछूए की आकार वाली नाड़ी होती है) में ध्यान या संयम करने से मन और देह में स्थिरता आती है।
मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्।
           हिन्दी में भावार्थ-मूर्धा की ज्योति (सिर के कपोल में एक छिद्र है जिसे बृह्मारन्ध भी कहते है तथा जिसमें प्रकाशमयी ज्योति प्रज्जवलित है) में ध्यान या संयम करने से प्रथ्वी और स्वर्ग लोक में विचरने वाले सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते हैं।
प्रातिभद्वा सर्वम्।
             हिन्दी में भावार्थ-पूर्ण ज्ञान होने पर ध्यान या संयम के भी सारी बातों का ज्ञान होता है।
        नियमित योग साधना करने वालों को ध्यान के लिये अधिक से अधिक समय निकालना चाहिये। ध्यान कहीं और कभी भी लगाया जा सकता है।  अपने ध्यान को स्थापित करने करने के लिये पहले भृकुटि पर प्राण केंद्रित करें। नाक  के   ऊपर  भृकुटि के साथ ही आज्ञा चक्र भी जुड़ा हुआ है उसके बाद सहस्त्रात चक्र, विशुद्धि चक्र, अनाहत  चक्र, मणिपुर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र तथा मूलाधार चक्र की तरफ ध्यान को घुमाते रहना चाहिये।  इसे हम संयम करना भी मान सकते हैं।  इन चक्रों पर ध्यान या संयम करने से अंतर्मन में प्रकाश का अनुभव होता है। हम अपने अंदर देह के अंगों की क्रिया और प्रतिक्रिया को तब अच्छी तरह से समझ सकते हैं जब नियमित रूप से ध्यान लगायें।  ध्यान लगाने वाले लोग क्षेत्रज्ञ हो जाते हैं और किसी आधुनिक चिकित्सक से अधिक अपने विकार और उनके प्रतिकार का ज्ञान रखते हैं।
     यहां यह स्पष्ट कर दें कि हृदय में संकल्प धारण करना उतना सहज नहीं है जितना कुछ लोग मानते हैं।  यह संसार संकल्प का खेल है।  आम मनुष्यों की आदत यह है कि वह स्वयं को विकार रहित मानते हुए अपनी नाकामियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हर मनुष्य अपने कर्म फल का उत्तरदायी स्वयं है।  जब कोई मनुष्य कर्तापन का त्याग कर ध्यान लगाता है तब वह दृष्टा हो जाता है और अपने जीवन को कलात्मक ढंग से बिताता है।  इसके लिये सबसे बड़ा महत्व संकल्प का है जो स्वयं धारण करना होता है। इसके लिये प्रेरणा स्वध्याय से ही जाग सकती है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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