यह संसार अत्यंत विचित्र है कुछ लोगों को धन संपदा पैतृक रूप से प्राप्त होती है तो कुछ अपने कर्मों से उसे प्राप्त करते हैं। यह अलग बात है कि दुष्कर्मों से धन संपदा अत्यंत सहजता से मिलती है पर अंततः वह कष्टकारक होती है। सत्कर्म करते हुए एक तो परिश्रम करना पड़ता है दूसरा इच्छित लक्ष्य विलंब से मिलने की भी संभावना रहती है। अनेक बार यह विलंब इतना हो जाता है कि आदमी का मन दुष्कर्म के मार्ग पर चलकर सफलता पाने के लिये लालायित हो उठता है। उस समय मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण कर अपने आसपास के वातावरण पर विचार करना चाहिये। अनेक ऐसे लोग हैं जो संक्षिप्त मार्ग पर चलकर अमीर बन जाते हैं पर उसके दुष्परिणाम के रूप में उनको अपना जीवन तक की आहुति देनी पड़ती है। विपत्ति के समय उनका कोई साथी नहीं बनता। ऐसा नहीं है कि सत्कर्मी पर संकट नहीं आता पर धर्म पर दृढ़ हैं उनको पूरे समाज की सहानुभूति मिल जाती है। सत्कर्म के बावजूद अगर सफलता न मिले तो भी यह नहीं मानना चाहिये कि हम भाग्यहीन हैं। समय आने पर इच्छित फल मिलेगा यह विश्वास धारण करते हुए अपने कर्म में लिप्त रहना ही मनुष्य का धर्म है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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नात्मात्नमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।
आमृत्यो श्रियमन्विच्छेनैनां मन्येत दुर्लभाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-अपनी समृद्धि के लिये पूरा प्रयास करने पर भी इच्छित लक्ष्य प्राप्त न हो तो भी स्वयं को कुंठित करते हुए भाग्यहीन नहीं मानना चाहिए। प्रयत्न करते रहना मनुष्य का धर्म है और संभव है कभी भाग्य साथ दे तो इच्छित लक्ष्य चाहे वह कितना भी दुर्लभ क्यों न हो मिल ही सकता है। ----------------
नात्मात्नमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।
आमृत्यो श्रियमन्विच्छेनैनां मन्येत दुर्लभाम्।।
न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्।
अधार्मिकारणां पापनामशुः पश्यन्विपर्ययम्।।
हिन्दी में भावार्थ-धर्म का आचरण करने पर संकट भले ही झेलना पड़े पर उससे विचलित नहीं होकर अधर्म में लिप्त लोगों को अपने अपराध का किस तरह दंड भोगना पड़ता है यह देखकर अधर्म के माग पर चलने का विचार ही त्याग देना चाहिये। अधार्मिकारणां पापनामशुः पश्यन्विपर्ययम्।।
आजकल लोगों में ऐसी प्रवृत्ति आ गयी है कि हर कोई जल्दी से जल्दी धन, प्रतिष्ठा और उच्च पद पाना चाहता है। इतना ही नहीं लोगों में अध्यात्मिक ज्ञान का इस कदर अभाव आ गया है कि धर्म और नैतिकता उनके लिये कोई अगेय विषय हो गया है। जिन लोगों के अंदर ज्ञान और विवेक है वही केवल यह देख पाते हैं कि अधर्म पर चलने वाले अंततः शीघ्र ही पतन की तरफ जाते हैं। धर्म और नैतिकता का मार्ग दुरुह अवश्य है रक्षित है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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श्रीमन लेखक साहब आप बधाई के पात्र कितनी सहजता से आप मनुस्मृति को आप पाक साफ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं , जबकि मनुस्मृति की जो मूल बातें हैं वर्ण व्यवस्था और जाती प्रथा उसको आपने कितनी सफगोई से बादल दिया हैं , और मनु को आपने भगवान बना दिया हैं। ईमानदारी से मनुस्मृति की बात को लिखने का कष्ट करें अगर आप सामाजीक बदलाव चाहते हैं तो , लेखक का कम होता हैं सच्चाई के साथ सामाजीक बदलाव लाना ना की उसको तोड़ मरोड़ कर लिखना। । । जय भीम जय भारत !!!!
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