धन, पद और शक्ति की संचय में लगे पूरे विश्व समाज का ध्यान अपने शरीर पर कम मन पर अधिक रहता है। लोग बाहरी आंखों से संसार की रंगीनियों को देखने में इतना ध्यान लगाते हैं कि उनको इस बात का आभास ही नहीं होता कि उनकी देह समय से पूर्व ही विकारो के जाल में फसती जा रही है। अब तो स्थिति यह है कि दिमागी तनाव से पैदा होने वाले रोग छोटे बच्चों और युवकों में भी दिखाई देने लगे है। विश्व के मनोवैज्ञानिक समाज में मनोविकारों की बढ़ती संख्या से चिंतित हैं। पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञ इसके लिये भोजन, रहन सहन और अप्राकृतिक कार्यशैली को बताते हैं। हालत यह है कि अनेक मनोवैज्ञानिक यह बात कहते हुए नहीं चूकते कि अब यह बात लगाना भी कठिन है कि हम से बात कर रहा व्यक्ति मनोरोगी है या हम स्वयं ही हैं। उनकी बात ठीक है पर भोजन, रहन सहन और कार्यशैली के सुविधाभोगी होने से उपजे मनोरोगों का परिणाम क्या हो रहा है, इस पर अभी तक कोई चिंत्तन सामने नहीं आ रहा है।
विदुरनीति में कहा गया है कि
-------------------
भक्ष्योत्तमप्रतिाच्छन्नं मत्स्यो वडिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धनवेक्षते।।
हिन्दी में भावार्थ-मछली हमेशा ही भोजन की लालच में कांटा पकड़कर उसमें बिना किसी विचार के फस जाती है।’’-------------------
भक्ष्योत्तमप्रतिाच्छन्नं मत्स्यो वडिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धनवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितु ग्रस्यं परिणमेच्च यत्
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भूतिमिच्छता।।
हिन्दी में भावार्थ- अपनी उन्नति की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सदैव ऐसा भोजन करना चाहिए जो पच सके।हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भूतिमिच्छता।।
पूरे विश्व के प्रचार माध्यम पूंजीपतियों के हाथ में है और वह केवल आर्थिक विकास की बात करते हुए समाज को भ्रमित कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि विकास केवल भौतिक ही नहीं वरन् आध्यात्मिक भी होता है पर इसके प्रति कोई जागरुक नहीं है। वास्तविकता यह है कि जब मनुष्य को भौतिकता का चरम मिलता है तब उसके अंदर एक खालीपन दिखाई देता है। यह खालीपन उसके आध्यात्मिक विषयों के अभाव की तरफ संकेत करता है। कहा जाता है कि इस ंसार में न गरीब सुखी है न अमीर! तब प्रश्न उठता है कि लोग अमीर होकर कौनसा सुख पाते है? सीधी बात यह है कि सुख कहीं मिलता नहीं बल्कि उसे अंदर अनुभव किया जाता है। इस अनुभूति के लिये यह आवश्यक है कि अध्यात्मिक ज्ञान होना चाहिए वरना तो जिस तरह मछली फसती है आदमी भी फस ही रहा है। स्थति यह है कि फास्ट फूड के नाम पर ऐसा भोजन करने की आदत लोगों में बढ़ी गयी है जो कि जिससे देह में ऊर्जा का निर्माण नहीं होता। बाज़ार में बनने वाले खाद्य पदार्थों में शुद्धता का अभाव होता है पर वहां खाने वालों की भीड़ इस बात का प्रमाण है कि लोग अपने स्वास्थ्य को बेजुबान मछलियों की तरह दाव पर लगा रहे हैं।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
No comments:
Post a Comment