हमारे देश में बरसों से भिक्षा मांगने और देने की एक धार्मिक परंपरा रही है। इसमें भी भिक्षा मांगने वाले भिक्षुक और देने वाले गृहस्थ के लिये भी नियम होते इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। दरअसल भिक्षा हमारी दान परंपरा का वह हिस्सा है जिसमें सांसरिक धर्म का निर्वाह होता है। दान के बारे में कहा जाता है कि वह हमेशा सुपात्र को दिया जाना चाहिए। गृहस्थ का कुपात्र को दिया गया दान निष्फल हो जाता है और दुष्ट को दान देने पर तो पाप भी लगता है। उसी तरह भिक्षा लेना भी केवल उन सन्यासियों का कार्य है जो संसार में धनोपार्जन त्यागी भाव होने के कारण नहीं करते। भिक्षा लेकर अपनी देह का पालन पोषण वह धर्म पालन की दृष्टि से करते हैं न कि उनका यह एक पूर्णकालिक व्यवसाय होता है। अपना पेट भरने के बाद वह समाज निर्माण का प्रयास करते हैं। इस सन्यासियों के मुख, वाणी और चक्षृओं में तप का तेज दिखाई देता है।
एककालं चरेद्भेक्षं न प्रसजोत विस्तरे।
भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति।।
हिन्दी में भावार्थ-एक बार भिक्षा मांगकर सन्यासी को उसी से अपना पालन करना चाहिए। एक से अधिक बार भीख मांगने वाला सन्यासी विषयों में घिरने लगता है।
विघूमे सन्ममुसले ज्याङ्गारे भुक्तवञ्जने।
वृत्ते शराव सम्पाते भिक्षां नित्यं यतिश्चरेत्।।
हिंदी में भावार्थ- सन्यासी को उसी घर से भिक्षा मांगनी चाहिए जहां चूल्हा ठंडा हो चुका हो। उस घर में कूटने और पीसने का काम पूरा होने पर खानी पीने के बर्तन धोकर रख दिये गये हों।
भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति।।
हिन्दी में भावार्थ-एक बार भिक्षा मांगकर सन्यासी को उसी से अपना पालन करना चाहिए। एक से अधिक बार भीख मांगने वाला सन्यासी विषयों में घिरने लगता है।
विघूमे सन्ममुसले ज्याङ्गारे भुक्तवञ्जने।
वृत्ते शराव सम्पाते भिक्षां नित्यं यतिश्चरेत्।।
हिंदी में भावार्थ- सन्यासी को उसी घर से भिक्षा मांगनी चाहिए जहां चूल्हा ठंडा हो चुका हो। उस घर में कूटने और पीसने का काम पूरा होने पर खानी पीने के बर्तन धोकर रख दिये गये हों।
यह अलग बात है कि इस भिक्षा का स्वरूप अब बदलकर भीख के रूप में दिखता है। अब भिखारी मंदिरों के द्वारों पर खड़े होकर जिस तरह भीख मांगते हैं उसे देखकर नहीं लगता कि वह कोई त्यागी हैं। उनके चेहरे पर अकर्मण्यता, लालच और लोभ के भाव आसानी से देखे जा सकते हैं। अनेक खास अवसरों पर ऐसे भिखारी सारा दिन भीख मांगते हैं। अनेक श्रद्धालु उनको खाना खिलाते हैं पर उसके बाद वह फिर वहीं भीख मांगने लगते हैं। कुछ धर्मभीरु भीख में धन या भोजन प्रदान कर यह सोचते हैं कि उन्होंने महान दान किया है। अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में उनका यह प्रयास वृथा होता है। अनेक सामाजिक विशेषज्ञ तो इस प्रकार की भीख को पापपूर्ण मानते हैं क्योंकि इस कार्य में त्यागी लोग नहीं बल्कि आलसी और लालची लोग लगे हैं। अनेक जगह छोटे छोटे बच्चे भीख मांगते हैं। सामाजिक विशेषज्ञ मानते हैं कि उन बच्चों को भीख देकर उनको भविष्य में अकर्मण्यता के साथ जीवन बिताने के लिये प्रेरित किया जाता है। देखा यह गया है कि अनेक लोगों को भीख मांगने की आदत बचपन से ही लग जाती है और वृद्धावस्था तब वह उससे छूट नहीं पाते। इसलिये भीख की इस नयी परंपरा से समाज में जो विकृत्तियां आई हैं उसे रोकने के लिये हमें अपने ग्रंथों में वर्णित भिक्षा परंपरा के नियमों की जानकारी रखनी चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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