हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक ऐसी परंपरायें प्रचलित हो गयी हैं जिनका मूल आध्यात्मिक आधारों से कोई संबंध नहीं है। भोगी और त्यागी में का समाज में कोई अंतर नहीं जानता है। भोग करने वाले अपने आपको सबसे बड़ा त्यागी बताते हैं और त्यागी को अक्षम कहा जाता है। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में जन्म के आधार पर जातियों का पैमाना तय किया हो ऐसा लगता नहीं है। अलबत्ता जातियों का कर्म के आधार पर विभाजन बताया गया है। यह कहना कठिन है कि मनुष्य की जाति उसके जन्म के आधार पर तय करना चाहिए यह कर्म ही उसकी पहचान होना चाहिए। एक व्यक्ति जो समाज को मार्गदर्शन देता है उसे ब्राह्मण माना जाता है उसकी संतान अगर अपना पारिवारिक कर्म न करे तो उसकी जाति उसके जन्म के आधार तय हो या कर्म को आधार मानना चाहिए? इस प्रश्न पर अनेक लोगों को भिन्न भिन्न मत हैं। एक बात तय है कि जातियों का संबंध कहीं न कहीं कर्म से है। समाज को बौद्धिक सहायता देने वाले विद्वान ब्राह्मण, व्यापार करने वाले वैश्य, रक्षा करने वाले क्षत्रिय और अन्य सेवायें करने वाले शुद्र माने गये हैं। आमतौर से शुद्र शब्द को अत्यंत बुरा माना जाता है पर सत्य यह है कि यह उस सेवा भाव का प्रतीक है जिसका हमारे अध्यात्मिक दर्शन में बहुत महत्व है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
-----------------
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति वाजामानकम्।
प्राप्तविद्या गुरुं दगधाऽरण्यं मृगास्तथा।।
हिन्दी में भावार्थ-ब्राह्मण दक्षिण लेकर यजमान, शिष्य ज्ञान लेकर गुरुदक्षिणा देकर गुरु और जंगल के जाने पर पशु पक्षी उसे त्याग देते हैं।-----------------
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति वाजामानकम्।
प्राप्तविद्या गुरुं दगधाऽरण्यं मृगास्तथा।।
लौकि कर्मणि रतः पशुनां परिपालकः
वाणिज्यकृषिकर्मा यः सः विप्रो उच्यते।
हिन्दी में भावार्थ -जो विद्वान ब्रह्मज्ञान होने पर भी सांसरिक जीवन मे रहकर पशुपालन, व्यापार और कृषि करता है वह वैश्य कहलाता हैवाणिज्यकृषिकर्मा यः सः विप्रो उच्यते।
अनेक लोग यह कहते हैं कि हम गरीबों, अपंगों, असहायों तथा पीड़ितों की सेवा कर रहे हैं पर वह अपने आपको ऊंचा दिखाना चाहते हैं। सेवक के रूप में वह झंडा लेकर समाज के शासक बनने का प्रयास करते हैं। फिर पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की वजह से हमारे यहां शुद्र को केवल घृणित या निम्न कोटि का कर्म करने वाला माना जाने लगा है जबकि इस जाति के लोग अन्य तीन वर्णों की सेवा करने वाला कार्य करते हैं। अध्यात्मिक ग्रंथों में यह कहीं नहीं कहा गया कि शुद्र होना निम्न होना है। अनेक जगह शुद्रों को ज्ञान देने पर प्रतिबंध है पर उसका आशय स्पष्ट नहीं है। ऐसा लगता है कि सेवाकर्म में लगे मनुष्यों में नम्रता, दया, सहृदयता का भाव और कष्ट उठाने की क्षमता स्वाभाविक रूप से रहती है। उनमें अपनी मूल पारिवारिक तथा सामाजिक स्थिति के कारण बड़े बनने के लिये पाखंड दिखाने की इच्छायें नहंी रहती। सेवाभाव वाले लोगों राजसी भाव का अभाव होता है इसलिये वह विकारों से परे रहते हैं। उनको ज्ञान की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। सेवा भाव में लगे समूहों को बारे में जानते हैं और यकीनन राजसी षड्यंत्रों और सामूहिक अपराधों में उनकी सक्रियता नहीं देखी जाती।
हमारे देश में पेशेवर अध्यात्मिक संदेश वाहकों ने अपनी अपनी दृष्टि और सुविधा से ग्रंथों की व्याख्या की है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से संसार के चारों वर्णों को अपनी भक्ति का अधिकार दिया है। उसमें कहीं भी किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया गया। उसमें स्पष्टत त्यागी को ज्ञानी बताया गया है पर हमारे समाज में भोगियों के आभामंडल से प्रभावित लोग उन लोगों को सन्यासी मानते हैं जिन्होंने केवल वस्त्र सफेद या गेरुए पहने हों पर शेष सारा काम राजस भाव से करते हैं। चाणक्य नीति में कहा गया है कि शिक्षा प्राप्ति के बाद गुरु का त्याग किया जाता है पर आजकल लोग केवल गुरुओं के आश्रमों में जाकर ही अपना धर्म निभाते हैं। उनके दर्शन होने पर क्षणिक प्रसन्नता का दावा करने वाले लोग कभी जीवन में आनंद नहीं उठा पाते क्योंकि उनमें ज्ञान का सर्वथा अभाव है। पेशेवर गुरु भी क्यों किसी शिष्य को ज्ञान देंगे? उनको पता है कि पूरी शिक्षा दे दी तो शिष्य गायब हो जायेगा। यही कारण है कि अध्यात्मिक सत्संग के नाम पर अब केवल गुरु शिष्य का नियमित आपसी मेलमिलाप होना रह गया है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
No comments:
Post a Comment