हमारे अध्यात्मिक दर्शन में मित्रता पर भी अनेक बातें कही गई हैं। इस संसार में सभी प्रकार के पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों की सीमा है। पारिवारिक संबंध जन्म के आधार पर बनते हैं तो सामाजिक लोगों के साथ बनाये जाते हैं, पर मित्रता या आत्मीय रिश्ता मनुष्य के व्यवहार, कार्य तथा विचारों से प्रकृति के अनुसार बनता है। आत्मीय या मित्रता संबंध न बनते हैं न बनाये जाते हैं बल्कि प्रकृति ही मनुष्य के सामने उनको उपस्थित करती है। जहां पारिवारिक संबंध सामाजिक आधारों पर कभी इच्छा से तो कभी मन की बाध्यता की वजह से निभाये जाते हैं वही प्रकृति निर्मित मित्रता तथा आत्मीय संबंध निभाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती। इसके बावजूद आदमी जिससे मित्रता करता है उसके प्रति बिना किसी फल के मित्रता का निर्वाह करने को तैयार रहता है। कई बार स्थिति यह होती है कि विपत्ति आने या विशेष काम उपस्थित होने पर जहां परिवार के सदस्य या रिश्तेदार सहयोग करने नहीं पहुंच सकते वहां मित्र अपनी भूमिका निभाने के लिये तत्पर हो जाते हैं।
फिर आज के समय जब भौतिकता का बोलबाला है और लोग अपनी रोटी रोटी कमाने के लिये अपने शहरों से पलायन कर दूसरी जगह बस रहे हैं। इससे उनके पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों से दूरी बन जाती है। कहा भी जाता है कि जो देह से दूर है वह दिल से भी दूर है। इसके अलावा महिलाओं के विवाह भी अपने शहरों से दूर दूसरे शहरों में काम कर रहे पुरुषों होते हैं, तब परिवार और रिश्तेदार उनसे दूर हो जाते हैं। इसलिये उनको प्रकृत्ति निर्मित बाह्य संबंधों पर निर्भर होना पड़ता है। जब किसी खास अवसर पर पारिवारिक लोग उनको महत्व अधिक मिलते देखते हैं तो दुःखी हो जाते हैं। कुछ लोग ताने भी देते हैं पर वह इस सत्य को नहीं समझते कि आदमी अपनी देह की आवश्यकताओं के कारण उन मैत्री और आत्मीय संबंधों पर निर्भर रहता है जहां पारिवारिक तथा सामाजिक रिश्तेदार काम नहीं करते।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न तत्र विष्ठति भ्राता न पितोऽयोऽपि वा जनः।
पुंसामापत्प्रत्तीकार सन्मित्रं यत्र तिष्ठति।।
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न तत्र विष्ठति भ्राता न पितोऽयोऽपि वा जनः।
पुंसामापत्प्रत्तीकार सन्मित्रं यत्र तिष्ठति।।
‘‘जहां किसी आदमी पर आपत्ति आने पर मित्र पास आकर उसे दूर कर सकता है वहां भ्राता, पिता तथा अन्य आत्मीय जन पहुंच भी नहीं सकता।
प्रकाशपक्षग्रहणं न कुर्यात्सहृदां स्वयंम्।
अन्योन्यमत्सरंवषा स्वयमेवाशं धारवेत्।।
अन्योन्यमत्सरंवषा स्वयमेवाशं धारवेत्।।
‘‘अपने प्रियजनों का पक्ष कहीं भी स्वयं प्रकट रूप से न लें बल्कि गुप्त रूप से किसी को इसके लिये प्रेरित कर इस कार्य को संपन्न करें।’’
वैसे संबंध चाहे पारिवारि हो या सामजिक हों या मैत्री वाले उनका कहीं अगर पक्ष रखना हो तो स्वयं यह काम न करें बल्कि किन्हीं अन्य लोगों से परस्पर सहयोग के आधार पर उनसे यह काम करवायें। बदल में आप उनका ऐसा ही काम करें। कहीं वाद विवाद या किसी अनुबंध के अवसर पर आप अपने आदमी का पक्ष रखेंगे तो यह माना जायेगा कि आप तो उसका पक्ष लेंगे ही इसलिये उसका महत्व कम हो जाता है।
----------संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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