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Saturday, January 21, 2012

चाणक्य नीति-विद्यार्थियों को केवल अपनी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए (chankya neeti-students life only for education)

                 पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने के साथ ही हमारे देश में शिक्षा का रूप भी बदल गया है। अब तो स्थिति यह है कि विद्यालयों के स्वामी अपनी कमाई के लिये बच्चों को पर्यटन और पिकनिक के लिये बाहर तक ले जाने लगे हैं।  अनेक बार विद्यालयों में ही मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।  वहां बात तो भारत की प्रसिद्धि गुरु शिष्य परंपरा की होती है पर प्राचीन शिक्षा को एकदम नकारा दिया गया है। छात्रों को शिक्षा के दौरान ही संपूर्ण ज्ञानी बनाने के नाम पर उनको शैक्षणोत्तर गतिविधियों से जोड़ा जाता है।  जिससे वह न इधर के रह पाते हैं न उधर के।
         भारतीय दर्शन में विद्याध्ययन के समय शिष्य के शिक्षा के अलावा अन्य किसी गतिविधि पर ध्यान देना वर्जित माना जाता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इस बात को भुला दिया गया है। हमने देखा है कि अक्सर आजकल के  शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षा के दौरान अन्य गतिविधियों पर ध्यान देने के लिये उकसाते हैं। इतना ही नहीं अनेक शिक्षण संस्थान तो अपने यहां शैक्षणिकोत्तर सुविधायें देने के विज्ञापन तक देते हैं। इतना ही नहीं माता पिता भी यह चाहते हैं कि उनका बालक शिक्षा के दौरान अन्य ऐसी गतिविधियों में भी भाग ले जिससे उसे अगर कहीं नौकरी न मिले तो दूसरा काम ही वह कर सके। नृत्य, खेल, तथा अभिनय का प्रशिक्षण देने के दावे के साथ ही चुनाव संघों के चुनाव के माध्यम से हर छात्र को एक संपूर्ण व्यक्ति बनाने का यह प्रयास भले ही आकर्षक लगता हो पर कालांतर में उसे अन्मयस्क भाव का बना देता है। एक दृढ़ व्यक्त्तिव का स्वामी बनने की बजाय छात्र छात्राऐं मानसिक रूप से डांवाडोल हो जाते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालायों में एक गणवेश का नियम होने पर उसका विरोध किया जाता है जिस कारण छात्र छात्रायें फिल्मों में दिखाये जाने वाले परिधान पहनकर शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं। इससे उनका ध्यान शिक्षा की बजाय दैहिक आकर्षण पर केंद्रित हो जाता है।
इस विषय में चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।
         ‘‘विद्यार्थी को चाहिए कि वह कामुकता, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृंगार, कौतुक, चाटुकारिता तथा अतिनिद्रा जैसे इन आठ व्यसनों और दोषों से दूर रहना चाहिए।’’
             हम यहां किसी पर अपने विचार लादना नहीं चाहते। जिसे जो करना है वह करे पर यह जरूर कहना चाहेंगे कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इस बात को स्पष्ट करता है कि शिक्षा के समय छात्र छात्राओं को अपनी किताबों की विषय सामग्री का ही अध्ययन करना चाहिए। हमने यह भी देखा है कि प्रायः वही छात्र छात्रायें ही अपनी शिक्षा का पूर्ण लाभ उठा पाते हैं जिन्होंने अपनी किताबों का अध्ययन किया है। आज के फैशन, फिल्मों तथा फैस्टीवलों पर फिदा छात्र अंततः शिक्षा समाप्त करने के बाद कहीं के नहंी रह जाते। इसलिये छात्र छात्राओं को जहां तक हो सके अपनी पाठ्यक्रम सामग्री पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि उसमें उनको विशेषज्ञता मिल सके।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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