पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभाधिष्ठास्तृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
हिन्दी में भावार्थ-बुद्धि और पुरुष (आत्मा) के अंतर का आभास जिसे समझ में आ जाता है ऐसा समाधिस्थ योगी सभी प्रकार के भावों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
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सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभाधिष्ठास्तृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
हिन्दी में भावार्थ-बुद्धि और पुरुष (आत्मा) के अंतर का आभास जिसे समझ में आ जाता है ऐसा समाधिस्थ योगी सभी प्रकार के भावों पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम क्या हैं? बुद्धि कहती हैं कि मै हूं और मन इस अहंकार के बोध में बेलगाम विचरण करता है। दैहिक क्रियाओं में कर्तापन की अनुभूति आदमी को ज्ञान से परे कर देती है। आदमी यानि अध्यात्म! पुरुष हो या स्त्री वास्तव में परमात्मा का अंश आत्मा है! वह इस देह को धारण किये है इसलिये उसे अध्यात्म भी कहा जाता है। वह कर्ता नहीं दृष्टा है मगर योग साधना से विरत मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान को ग्रहण नहीं करने देती और मन इधर से उधर उसे दौड़ाता है।
हम आत्मा है! न वह खाता है न वह पीता है न वह सोचता है न बोलता है। यह सारे कार्य तो उस देह के अंग स्वतः कर रहे हैं जिसको आत्मा यानि हमने धारण किया है। देह की आवश्यकतायें असीमित पर अध्यात्म की भूख सीमित है। वह केवल ज्ञान के साथ जीना चाहता है। वह दृष्टा तभी बन सकता है जब हम योग के द्वारा अपनी इंद्रियों के गुणों से उसे सुसज्जित करें। इसके लिये जरूरी है कि ध्यान करते हुए समाधि के माध्यम से उन पर नियंत्रित कर उनका स्वामी बनने का प्रयास किया जाये। नाक है तो सुगंध ग्रहण करेगी, आंख है तो देखेगी और कान है तो सुनेंगे। बुद्धि का काम है विचार करना और मन का काम है इधर उधर विचरण करना। ऐसे में हम अध्यात्मिक ज्ञान को तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब संकल्प धारण करें। सदैव बहिर्मुखी रहने की बजाय अंतर्मुखी होने का प्रयास भी करें। जब हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने अध्यात्म से संपर्क कर लेंगे तो वह दृष्टा भाव को प्राप्त होगा तब निराशा, प्रसन्न्ता, शोक तथा हर्ष के भाव पर स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जिस तरह स्वामी अपने अनुचरों के कर्म से विचलित नहीं होता और मानता है कि यह काम तो उनको करना ही है उसी तरह हम भी यह देखने लगेंगे कि शरीर के अंग हमारे सेवक है और उनको काम करना है तब ऐसा आनंद प्राप्त होगा जो विरलों को ही प्राप्त होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि समाधि से मनुष्य अपनी आत्मा को पहचान कर सच्चा स्वामी बन जाता है ।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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