पतंजलि योग साहित्य के अनुसार
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तदेवार्थमात्रनिर्भसं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
"जब केवल अपना ही लक्ष्य दिखता है और चित्त में जब शून्य जैसा अनुभव होता वही समाधि हो जाता है।"
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तदेवार्थमात्रनिर्भसं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
"जब केवल अपना ही लक्ष्य दिखता है और चित्त में जब शून्य जैसा अनुभव होता वही समाधि हो जाता है।"
त्रयमेकत्र संयम्।।
"किसी एक विषय पर ध्यान केंद्रित हो जाने तीनों का होना संयम् है"
"किसी एक विषय पर ध्यान केंद्रित हो जाने तीनों का होना संयम् है"
तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।
"उस विषय में जीत होने से बुद्धि का प्रकाश होता है।"
"उस विषय में जीत होने से बुद्धि का प्रकाश होता है।"
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ध्यान मनुष्य के लिये एक श्रेष्ठ स्थिति है। चंचल मन तो मनुष्य को हर भल चलाता है इसलिये किसी लक्ष्य में संलिप्त होते ही उसका ध्यान उससे इतर विषयों पर चला जाता है। अनेक लोग एक लक्ष्य के साथ अनेक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इससे मस्तिष्क असंयमित हो जाता है और मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का।
जब कोई मनुष्य एकाग्र होकर किसी एक विषय में रम जाता है तब वह ध्यान का वह चरम प्राप्त कर लेता है जिसकी कल्पना केवल सहज योगी ही कर पाते हैं। मूलत यह स्थिति मस्तिष्क से खेले जाने वाले खेलों शतरंज, ताश और शतरंज में देखी जा सकती है जब खेलने वाले किसी अन्य काम का स्मरण तक नहीं कर पाते। हालांकि शारीरिक खेलों-बैटमिंटन, क्रिकेट, हॉकी तथा फुटबाल में इसकी अनुभूति देखी जा सकती है पर अन्य अंग चलायमान रहने से केवल खेलने वाले को ही इसका आभास हो सकता देखने वाले को नहीं। हम अक्सर खेलों के परिणामों का विश्लेषण करते हैं पर इस बात पर दृष्टिपात नहीं कर पाते कि जिसका अपने खेल में ध्यान अच्छा है वही जीतता है। हम केवल खिलाड़ी के हाथों के पराक्रम, पांवों की चंचलता तथा शारीरिक शक्ति पर विचार करते हैं पर जिस ध्यान की वजह से खिलाड़ी जीतते हैं उसे नहीं देख पाते। यहां तक कि अभ्यास से अपने खेल में पारंगत खिलाड़ी भी इस बात की अनुभूति नहंी कर पाते कि उनका ध्यान ही उनकी शक्ति होता है जिससे उनको विजय मिलती है। जो पतंजलि येाग शास्त्र का अध्ययन करते हैं उनको ही इस बात की अनुभूति होती है कि यह सब ध्यान का परिणाम है। यही कारण है कि जिन लोगों का स्वाभाविक रूप से ध्यान नहीं लगता उनको इसका अभ्यास करने के लिये कहा जाता है।
इसका अभ्यास करने पर बुद्धि तीक्ष्ण होती है और अपने विषय में उपलब्धि होने पर मनुष्य के अंदर एक ऐसा प्रकाश फैलता है जिसके सुख की अनुभूति केवल वही कर सकता है।
संकलक,लेखक और सम्पादक-दीपक राज कुकरेजा,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj kukreja"Bharatdeep",Gwaliro
http://aajtak-patriak,blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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