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नर नारायन रूप है, तू मति जाने देह।
जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।
मनुष्यों तुम अपने को देह मत समझो बल्कि स्वयं को परमात्मा ही समझो। यह शरीर तो जड़ है और उसमें सांस प्रवाहित कर रहा आत्मा है वही स्वयं को समझो। यह समझ लो यह शरीर एक दिन माटी हो जायेगा पर आत्मा तो अमर है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग आंख से देखने और कान से ज्ञान समझने सुनने का काम नहीं कर पाते। उनके सिर के बाल सफेद हो जाते हैं पर फिर भी अज्ञानी बने रहते हैं।
वर्तमान सदंर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारा अध्यात्मिक दर्शन स्पष्ट करता है कि यह शरीर पंच तत्वों से बना है और उसमें मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती हैं। आंख हैं तो देखती है, कान हैं तो सुनते हैं, नासिका है तो सुगंध ग्रहण करती है, मुख है तो भोजन ग्रहण करता है और मस्तिष्क है तो विचार करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुण ही गुणों को बरत रहे हैं पर हम सोचते हैं कि यह सभी हम कर रहे हैं हृदय में दृष्टा भाव होने की जगह कर्तापन का अहंकार आ जाता है। इसी अहंकार में मनुष्य के बाल सफेद हो जाते हैं पर वह अज्ञान के अंधेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है।
हम आत्मा हैं और परमपिता का अंश है। यह आत्मा अनश्वर है पर हम अपने नष्ट होने के भय में रहते हैं। कर्तापन का अहंकार हमें माया का गुलाम बनाकर रख देता है। संत कबीर दास जी के मतानुसार सत्य का ज्ञान प्राप्त कर हमें अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा करना चाहिये कि हम परमात्मा का अंश या स्वरूप हैं। जिस परमात्मा को हम दर दर ढूंढते हैं वह हम स्वयं ही हैं या कहें कि वह हमारे अंदर ही हैं। जरूरत है तो बस शब्द ज्ञान को समझने की है। इस संसार में आकर अपने दैहिक कर्तव्य पूरा तो करना चाहिये पर अपनी बुद्धि और मन को उसमें अपनी संलिप्पता की अनुभूति से परे रखें।
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सार्गर्भित्रचना है धन्यवाद्
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