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Tuesday, September 15, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-किसी के मुख की चाँद से तुलना निंदनीय (face and moon-hindi adhyatmik sandesh)

अजानन्दाहात्भ्यं पततु शालभे दीपदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडियुतमश्नातु पिशितम्।
विजानंतोऽप्येतेवयमिह विषज्जालजटिलाः न मुंजचामः कामानहह गहनो मोह महिमा

हिंदी में भावार्थ-अपने अज्ञान के कारण पंतगा दीपक की लौ की तरफ आकर्षित होकर उसमें प्रवेश कर प्राण गंवा देता है और मछली कांटे में फंस जाती है पर मनुष्य तो इस संसार में भोग विलास के में यह जानते हुए भी लिप्त होता है कि उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देखा जाये तो स्त्री के प्रति कवियों के मन में आकर्षण सदियों से है। वह उसकी देह की व्याख्या कर उसे बहुत सुंदर प्रतिपादित करते हैं जबकि देखा जाये तो स्त्री और पुरुष दोनों की देह मांस पिंड से ही बनी है। इस देह के साथ अच्छाई और बुराई दोनों ही समान रूप से जुड़ी हैं।
स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्यूपमिती मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशांकेन तुलितम्।
स्रवमूलक्लिन्नं करिवरकरस्र्धि जघनंमुहूर्निद्यं रूपं कविजन विशेषैर्गुरुकृतिम्

हिंदी में भावार्थ-मांस पिण्ड से बनी नारी देह का कवियों ने बहुत घृणित ढंग से वर्णन किया है। वह खंखारने  और थूकने के लिये जो मुख उपयोग में आता है उसकी तुलना चंद्रमा से करते हैं जो कि निंदनीय है।

प्रत्येक मनुष्य की देह में विकार होते हैं। इतना ही नहीं हम अपने मुख से मिठाई खायें या करेला उनको हमारी देह के अंग ही कचड़े के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। वह कचड़ा जब निष्कासन अंगों से बाहर आता है तो हम ही उसे देखना नहीं चाहते। कहने का तात्पर्य यह है कि यह देह मांस के पिंड से बनी है पर स्त्री की देह पर अनेक रसिक कवि ऐसी टिप्पणियां लिखते हैं जो हास्यास्पद और निंदनीय है। यह परंपरा आज भी चली आ रही है। हमारे यहां सूफी भक्ति की भी परंपरा शुरु हुई है पर उसमें गीत इस तरह लिखे गये जैसे वह निरंकार ईश्वर के लिये गाये जा रहे हैं पर उसे दैहिक प्रेम करने वाले लोग अपने संदर्भ में लेते हैं। फिल्मों में कई ऐसे गीत हैं जिनका सृजन तो निरंकार के लिये किया जाता है पर परदे के  दृश्य में नायक  और नायिका अपने प्रणय सबंधों का निर्वाह करती  दिखाई देती है।
पतंगा अपने अज्ञान के कारण दीपक की लौ में जलकर भस्म होता है पर उसे भी प्रेम का प्रतीक बना दिया गया है। एक तरह से रसिक कवि न केवल स्वयं ही अज्ञानता के अंधेरे में होते हैं बल्कि अपनी कविताओं से दूसरे लोगों को भी भ्रमित करते हैं।  अगर हम  वर्त्तमान में देखें तो इन्हीं रसिक कविताओं में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग डूबा हुआ है। इसका कारण लोगों का अपने अध्यात्मिक  ज्ञान से दूर रहना ही है जिसके फलस्वरूप  वह आज के कवियों की अतार्किक कविताओं और गीतों से सजे बाजार के चंगुल में फंसे रहते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

1 comment:

  1. आजकल मनुष्य काम से छुटकारा पाए भी तो कैसे ? जिधर देखो उधर बस काम ... काम ... का प्रचार है |

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