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Sunday, July 26, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-ऊंचे घराने के लोग अपने से कमजोर को सताया नहीं करते (economics of kautilya-poor & rich men)

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेधमालातिपेलवैः।
कथं नाम महत्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिंदी में भावार्थ-
जब जलराशि से भरे बादल तीव्रगामी वायु के प्रभाव से इधर उधर डोलने लग जाते हैं तब विषय रूपी शत्रुओं से साधु या महात्मा विचलित हुए बिना कैसे रह सकते है? विषयों का प्रभाव कभी न कभी उन पर पड़ता है।

कोहि नाम कुले जातः सुखलेखेन लोभितः।
अल्पसाराणि भूतानि पीडयेदविचारयन्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने थोड़े से सुख के लिये कोई अपने से कमजोर व्यक्ति को पीड़ित करे वह कुलीन परिवार का नहीं हो सकता। ऐसा अपराध करने वाला निश्चित रूप से अधम होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने धन, पद और बाहुबल का अभिमान पालते हुए अपने से कमजोर व्यक्ति को सताना अपराध है। ऐसे लोग नीच ही कहे जा सकते हैं। यह संदेश आज के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक हो गया है। जिस तरह कथित रूप से कुलीन-धनाढ्य, उच्च पदस्थ तथा बाहुबली-परिवारों के लोगों में अपनी शक्ति की अनुभूति दूसरे लोगों को कराने की प्रवृत्ति बढ़ रही है उससे सभी समाजों में भारी तनाव व्याप्त है। पहले कुलीन परिवारों के युवक युवतियां अपने से कमजोर परिवारों के सदस्यों से सदाशयता का व्यवहार करते हुए अपना बड़प्पन दिखाते थे पर अब यह काम दादागिरी से किया जाने लगा है। ‘हम बड़े हैं इसलिये दूसरे की सहायता करेंगे’ की प्रवृत्ति की बजाय ‘हम बड़े हैं इसलिये किसी को भी हानि पहुंचाये पर हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता‘ इस प्रमाण के लिये अपराध किया जाते हैं। इसी कारण समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है।

भगवानी श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में एक तरह से सांख्यभाव को खारिज किया है। उनका कहना है कि आदमी अपनी दैहिक बाध्यताओं और इंद्रियों के वश में होने के कारण सांसरिक कार्य के लिये अवश्य प्रवृत्त होता है। इसलिये साधु सन्यासियों से यह अपेक्षा करना ही व्यर्थ है कि वह हमेशा विषयों से परे रह पायेंगे। इस संसार में विषय हर आदमी को आकर्षित करते हैं और अपनी दैहिक एवं सांसरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विषयों में वह कभी न कभी लिप्त होता है। मुख्य बात यह नहीं है कि कोई साधु या संत विषयों में लिप्त है बल्कि यह देखना चाहिये कि उसका आचरण कैसा है?
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