येनवाम्बरखण्डेद संवीतो निशि चन्द्रमाः
तेनैव च दिवा भनुरहो दौर्गत्यमेतयोः
हिंदी में भावार्थ-इस सृष्टि के आधारों में एक चंद्रमा पूरी रात इधर से उधर भटकता है तो दूसरा सूर्य आकाश में दिन भर मारा मारा समस्त दिशाओं का भ्रमण करता है। ज्योतिष शास्त्र में इस पृथ्वी के सिरमौर माने जाने वाले इन दोनों महानुभावों को भी ऐसी दुर्गति देखनी पड़ती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अमीर हो या गरीब सभी को अपने हाल पर रोना आता है। कोई अपने जीवन में प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता। एक रोटी मिली तो दूसरी चाहिये। दूसरी मिली तो तीसरी। दिन में पेट भर गया तो फिर रात के भोजन की तलाश मन में पैदा होती है। रात को खाना खाया कि अगले दिन की चिंता शुरु हो जाती है। आशय यह है कि पेट भरा है पर फिर भी अगले समय का भोजना पाने और उसे बनाने की तैयारी प्रारंभ हो जाती है। आदमी की भौतिक साधनों की हवस भी कम नहीं होती। एक फ्रिज मिल गया तो रंगीन टीवी की चाहत! वह भी पूरी हुई तो कंप्यूटर पाने की भावना बलवती है। स्कूटर है तो मोटर साइकिल खरीदने की इच्छा और वह मिल गयी तो कार के लिये मोह जागता है।
इंसान भागता जाता है। इस अंधी दौड़ में दौड़ते दौड़ते हुए थक जाता है तो अपनी दुर्गति का रोना रोता है। इस देह के साथ कर्म तो करना ही है। आदमी मन की शांति की तलाश करता है पर उसका मार्ग पर कभी नहीं चलना चाहता। भक्ति और ज्ञान में संलग्न रहना उसे समय बरबाद करना लगता है। हां, मानसिक अशांति से अपने शरीर को गलाना शायद सभी को अच्छा लगता है। अगर आदमी इस सृष्टि में उत्पन्न हुआ है तो उसे कर्म करना ही है। देखा जाये तो सभी को अपने जीवन में परिक्रमा करनी पड़ती हैं। इंसान नौकरी या व्यवसाय अपने और परिवार के पेट पालने और भौतिक सुख सुविधा पाने के इरादे से करता है। यह जीवन भी परिक्रमा की तरह है जैसे सूर्य और चंद्रमा करते हैं। जब उनकी हालत ऐसेी है तो फिर हमें अपने कष्टों पर अधिक चिंता क्यों करना चाहिये?
.........................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment