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Sunday, April 5, 2009

भर्तृहरि संदेश: घमंडी पैसे वालों से उम्मीद क्यों करते हो? (hindu dharm and thought on rich men)

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।


हिंदी में भावार्थ- वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।

वर्तमान संदर्भ में संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-यह तो प्रकृति का ही कुछ रहस्य है कि माया सभी के पास समान नहीं रहती। जन्म तो सभी एक तरह से लेते हैं पर माया के आधार पर ही गरीब और अमीर का श्रेणी तय होती है। वैसे प्रकृति ने इतना सभी कुछ बनाया है कि आदमी अगर आग न भी जलाये तो भी उसक पेट भरने का काम चल जाये। तमाम तरह के रसीले फल पेड़ पर लगते हैं पहाड़ों से निकलने वाले झरने पानी देते हैं पर मनुष्य का मन भटकता है केवल उन भौतिक पदार्थों में जो न खाने के काम आते हैं न पीने के। सोना चांदी रुपया और तमाम तरह के अन्य पदार्थ वह संग्रह करता है जो केवल मन के तात्कालिक संतोष के लिये होते हैं। जिनके पास थोड़ा धन आ जाता है गरीब आदमी उसकी तरफ ही ताकता है कि काश इतना धन मुझे भी प्राप्त होता। या वह इस प्रयास में रहता है कि उस धनी से उसका संपर्क बना जाये ताकि समाज में उसका सम्मान बने भले ही उससे कोई आर्थिक लाभ न हो-जरूरत पड़ने पर सहायता की भी आशा वह करता है।
ऐसे विचार हमारे अज्ञान का परिचायक होते हैं। हमें इस प्रकृति की तरफ देखना चाहिये जिसने इतना सब बनाया है कि कोई आदमी दूसरे की सहायता न करे तो भी उसका काम चल जाये। ऐसे में धनिक लोगों की तरफ मूंह ताक कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये।
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