हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या के लिये यहां के समशीतोष्ण
जलवायु भी मानी जाती है। कहा जाता है कि भारत में ग्रीष्म की प्रधानता के कारण यहां
लोगों में जनसंख्या वृद्धि रखने की प्रवृत्ति है।
जनसंख्या की वृद्धि अनेक समस्याओं की जनक है जिसमें अपराधों की वृद्धि स्वाभाविक
है। अतः कम से कम हम ऐसे अनेक अपराधों से निपटने
में पश्चिम के उदार रवैये का अनुसरण बिना विचारे नहीं कर सकते जिसकी अपेक्षा मानवाधिकार
के प्रचारक करते हैं।
संविधान के अनुसार
बाल अपराध नियम में आयु 18 से घटाकर 16 की गयी है। यह स्वागत योग्य है पर हमारी राय यह भी थी किसी प्रकरण विशेष में
अभियुक्त की आयु तीन या चार माह कम होने पर
न्यायाधीशों को भी विवेक का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिये। भारत की तुलना
मानवीय स्वभाव की दृष्टि से शेष विश्व से नहीं की जा सकती है। कहा जाता है कि उष्णजलवायु व
जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से भारत में बालक जल्दी बड़ा या कहें बुद्धिमान होता है। इसके साथ ही गरीबी,
अशिक्षा व पिछड़ेपन की स्थितियां होने सेे अनेक बच्चों को 14 वर्ष की आयु में ही खींचतान के युवा बनाकर मजदूरी या अपराध करने के क्षेत्र में उतरने को बाध्य किया
जाता है। केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी जी सही कहती हैं कि असभ्य लोग अपने बच्चों को कानून में आयु का लाभ उठाकर
आपराधिक कृत्य में लगा देते हैं। हमारा मानना है कि 16 वर्ष बाल अपराध की आयु
मानने के साथ ही न्यायाधीशों को 3 से 4 माह कम होने पर स्वविवेक
उपयोग करने का हक तो देना ही चाहिये। बाल न्याय
कानून में बदलाव करना आवश्यक था पर इसका विरोध होना समझ से परे रहा। वैसे जजों को विवेक
का अधिक होना चाहिये।
हमारे यहां वैसे भी न्यायाधीश
को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है। इसलिये आधुनिक न्याय व्यवस्था में न्यायाधीशों
को केवल किताबी कानून पर चलने की बजाय स्वविवेक से निर्णय करने की भी स्वतंत्रता होना
चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.comयह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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